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-: विद्यापति गीत :-

                             

के पतिआ लय जायत रे, मोरा पिअतम पास।
के पतिआ लय जायत रे, मोरा पिअतम पास।
हिय नहि सहय असह दुखरे, भेल माओन मास।।

एकसरि भवन पिआ बिनु रे, मोहि रहलो जाय।
सखि अनकर दुख दारुन रे, जग के पतिआय।।

मोर मन हरि लय गेल रे, अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बसु रे, कत अपजस लेल।।

विद्यापति कवि गाओल रे, धनि धरु मन मास।
आओत तोर मन भावन रे, एहि कातिक मास।।

  
 चानन भेल विषम सर रे, भुषन भेल भारी।
चानन भेल विषम सर रे, भुषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी।।

एकसरि ठाठि कदम-तर रे, पछ हरेधि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी।।

जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, बध लागत काह।।

कवि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटकारी।।


चन्दा जनि उग आजुक राति।

चन्दा जनि उग आजुक राति।
पिया के लिखिअ पठाओब पांति।।

साओन सएँ हम करब पिरीति।
जत अभिमत अभि सारक रिति।।

अथवा राहु बुझाओब हंसी
पिबि जनु उगिलह सीतल ससी।।

कोटि रतन जलधर तोहें लेह।
आजुक रमनि धन तम कय देह।।

भनइ विद्यापति सुभ अभिसार।
भल जल करथइ परक उपकार।।

कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी।।

छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी।।

संगक सखि अगुआइलि रे हम एकसरि नारी।
दामिनि आय तुलायति हे एक राति अन्हारी।।

भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग कछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी।।


बड़ सुखसार पाओल तुअ तीर
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे। छाड़इते निकट नयन बह नीरे।
कर जोड़ि बिनमञो विमलतरङ्गे  पुन दरसन होअ पुनिमति गङ्गे 
एक अपराध छेँओब मोर जानी  परसल माए पाए तुअ पानी।
कि करब जप तप जोग धेआने  जनम सुफल भेल एकहि सनाने।
भनइ विद्यापति समन्दञो तोही  अंत काल जनु बिसरह मोही

ससन-परस रबसु अस्बर रे देखल धनि देह।
 ससन-परस रबसु अस्बर रे देखल धनि देह।
नव जलधर तर चमकय रे जनि बिजुरी-रेह।।

आजु देखलि धनि जाइत रे मोहि उपजल रंग।
कनकलता जनि संचर रे महि निर अवलम्ब।।

ता पुन अपरुब देखल रे कुच-जुग अरविन्द।
विकसित नहि किछुकारन रे सोझा मुख चन्द।।

विद्यापति कवि गाओल रे रस बुझ रसमन्त।
देवसिंह नृप नागर रे, हासिनि देइ कन्त।।

कुंज भवन सं निकसल 

कुंज भवन सं निकसल रे, रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे, जनि करु बटमारी।।

छोड़- छोड़  कान्ह मोर आंचर रे, फाटत नब साड़ी।
अपजस होएत जगत भरि हे, जनि करिअ उधारी।।

संगक सखि अगुआइलि रे, हम एकसरि नारी।
दामिनि आय तुलायति हे, एक राति अन्हारी।।


भनहि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग कछु डर नहि हे, तोंहे परम गमारी।

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