बामपंथ : मार्क्सवाद से अफजलवाद तक।
चूँकि बामपंथ में भौगोलिक राष्ट्र की कोई अवधारणा नहीं है, इसलिए आज तक बामपंथ का राष्ट्रभक्ति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं बन सका। परिणाम सबके सामने है, भारत के बामपंथी बिना किसी संकोच के हर देश बिरोधी ताकतों का प्रवक्ता बन जाता है। हाल में जेएनयू में हुआ देशद्रोह की घटना और उसमे बामपंथियों की संलिप्तता का कारन उसका यही वैचारिक स्खलन है जो उसे अपने पूर्वजों से विरासत में मिला है।
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना वैसे तो 1925 में विधिवत हुआ था, लेकिन 1920
में ही इसका बीजारोपण हो चूका था। भारत की जनता या राष्ट्र की ईच्छा-आकांक्षा की पूर्ति लिए नहीं बल्कि वैश्विक साम्यवाद को भारत में स्थापित करने के लिए। इसको सरल भाषा में हम इस तरह समझ सकते है जिस तरह मुग़ल और अंग्रेज ने अपने खास धार्मिक आर्थिक जूनून की पूर्ति लिए भारत में अपनी राजसत्ता कायम किया था, ठीक उसी प्रकार भारत में भी वैश्विक साम्यवाद के प्रतीक सोबियत रूस की सत्ता कायम करने के लिए भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना किया गया था। कम्युनिष्ट इंटरनेशनल के एक शाखा के रूप में। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का मुख्य लक्ष्य था,"अंतर्राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकने के लिए सभी प्रकार के उपलब्ध साधनों के माध्यम से एक आन्दोलन चलाना था और जब पूंजीवाद का पतन हो जाए तो संक्रमण काल में अंतर्राष्ट्रीय सोवियत गणराज्य का निर्माण करना था"। यानी देशद्रोह का बीज तो उसे इसके जन्मकाल में ही पर चूका था।
31 मई, 1927 को बम्बई अधिवेशन में इन्ही कम्युनिस्टों ने एक प्रस्ताव स्वीकृति किया जिसमें कहा गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समस्त विश्व की कम्युनिष्ट पार्टियों और अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर मार्गदर्शन तथा नेतृत्व के लिए देखती है, ताकि इस देश(भारत) में उसने जो कार्य हाथ में लिया है उसे पूर्ण कर सके। श्री एम एन राय ने 1927 के जुलाई मास के "मासेस ऑफ़ इंडिया"-3 में प्रकाशित "इंडियन कम्युनिस्ट" शीर्षक के लेख में स्पष्ट लिखा कि (भारत में) कम्युनिस्ट पार्टी अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का अंग ही हो सकती है। अन्यथा वह चाहे जो कुछ हो कम्युनिस्ट नहीं हो सकती।
इसीका परिणाम था पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भटकता रहा। कभी अंग्रेजों के साथ होता था तो कभी अंग्रेजों के खिलाफ। ब्रिटिश सरकार द्वारा 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की घोषणा हो चूका था। उसी समय रूस के स्टालिन ने जर्मनी के हिटलर के साथ आपसी समझौते किया। चुकी रूस जर्मनी से समझौता कर चूका था इसलिए भारत के कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को साम्राज्यवादी युद्ध करार दिया। कम्युनिस्टों ने पूरे भारत वर्ष में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अनेक आंदोलन और हड़ताल चलाया, पुलिस और सेना पर हमला किया ।
लेकिन ठीक दो साल बाद 1941 में जब जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया तो फिर भाकपा ने अपन रंग बदला और जर्मनी के खिलाफ युद्ध में रूस और अंग्रेजों के साथ हो गया। पहले जिसे साम्राज्यवादी युद्ध कहता था वो अब जनयुद्ध हो गया। ब्रिटिश सरकार के समर्थन में भारत में सैनिकों की भर्ती का जिम्मा भी कम्युनिस्टों ने उठा लिया।
1942 में जब गांधीजी ने "अंग्रेजों भारत छोडो" नारा दिया तो, भारत के कम्युनिस्टों ने भारी बिरोध किया। ये अग्रेजों के समर्थन में ख़ुफ़िया पुलिस की भूमिका में आ गया। जब सुभाष बाबू ने अंगेजी सत्ता के खिलाफ "आजाद हिन्द फौज बनाया" तो उन्हें जापान का कठपुतली, देशद्रोही, तोजो का कुत्ता कहा।
जब मुस्लिम लीग ने अलग मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान के लिए भारत विभाजन की मांग किया, तब यही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी इसके समर्थन में रीजोलुशन पास किया। यानी धर्म को अफीम मानने वालों ने धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र का समर्थन ही नहीं किया उसके लिए आंदोलन भी किया। नोआखाली में मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन में कम्युनिस्टों ने साथ दिया हजारों लोगों का रक्तपात किया। विभाजन के परिणाम लाखों परिवार दोनों तरफ से निर्वासित हुआ, जन-धन की कितनी हानि हुई इसकी कल्पना भी रूह को कंपा देता है। खैर 1947 में देश आजाद हुआ लेकिन कम्युनिस्टों ने इस आजादी को भी नहीं माना और तत्कालीन सरकार के खिलाफ लड़ाई जारी रखा। महात्मा गांधी को ये लोग तब प्रतिक्रियावादी और नेहरू को साम्राज्यवादी कहा करते थे।
1951 में स्तालिन के आदेश पर एस.ए.डांगे, अजय घोष, राजेश्वर राव, वासवपुन्नैया आदि पांच शीर्ष भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं की गुप्त मास्को यात्रा के समय स्तालिन की फटकार के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने गांधी-प्रणीत स्वतंत्रता आंदोलन की निंदा बंद की, नेहरू को साम्राज्यवादियों का एजेंट कहना छोड़ा, तेलंगाना के हिंसक आंदोलन को वापस लिया और भारतीय संविधान के अन्तर्गत चुनाव प्रक्रिया में सम्मिलित होने का मन बनाया।
1962 में भारत चीन के बीच युद्ध में कम्युनिस्टों के एक धड़े ने चीन का साथ दिया। उन्होंने कहा ये पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की लड़ाई है। जिसमे उन्होंने अपनी बामपंथी तर्क के हिसाब से भारत को पूंजीवाद का प्रतीक मान देश के खिलाफ काम किया जो की बिलकुल देशद्रोह था।
1975 में जब देश पर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी थोपा लाखो राजनितिक बिरोधियों को जेल भेजा तब आज के सहिष्णुता के कथित पुरोधा उस दमनकारी सत्ता का समर्थन कर रहे थे।
भारत के बामपंथियों ने देश की हर समस्या का हल विदेशी सोच और विदेशों से दिशा-निर्देश लेकर ही करने की कोशिश किया। जब तक रूस में गोर्वाचोव के नेतृत्व में उदारवादी आंदोलन शुरू नहीं हुआ था तब तक रूस से गाइड लेता रहा फ़िर चीन से और जब चीन भी बाजारवादी व्यवस्था के गोद में चला गया तो भारत के बामपंथी अब अमेरिकी-यूरोपीय सत्ता का टूल्स बनना स्वीकार कर लिया। उसीका परिणाम है चीन के बीजारोपित माओवादी आंदोलन आज भारत में ईसाई मिसनरीज का टूल्स बन कर रह गया है।
भारत के हर पृथकतावाद को बामपंथियों का समर्थन प्राप्त होना, उसके इसी वैचारिक स्खलन का प्रमुख कारन है। चाहे कश्मीर का मामला हो या मणिपुर-नागालैंड का सब जगह भारत के खिलाफ भारतीय सेना के खिलाफ बामपंथीयों का सहभागिता रहा है। अपनी इसी राष्ट्रबिरोधी मानसिकता के चलते ये लोग संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल का समर्थन करते है। अफजल का शहीदी दिवस जेएनयू जिसे बामपंथी मक्का कहा जाता है वहां मनाते है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जुडीशियल किलिंग की संज्ञा देते है। जेएनयू के अंदर लगे भारत बिरोधी नारे : भारत के टुकड़े होंगे- इंशा अल्लाह, भारत हो बरबाद का नारे लगाने वालों का साथ देते है।
आज भी इनके लिए देशद्रोह क्रांति है, देशभक्ति इनके लिए उपहास की चीजे है। कह सकते है 90-95 साल की राजनीती में बामपथ का सफर जो मार्क्सवाद से शुरू हुआ था आज अफजलवाद पर दम तोड़ रहा है।
जबकि इसी के समकालीन राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ अपने देशभक्ति के दम पर पूरी शालीनता साथ विभिन्न षड्यंत्रों के बीच आज भारत के केन्दीय सत्ता पर बिराजमान ही नहीं है समाज के हर क्षेत्र में अपनी पहुंच और उपयोगिता साबित करके दिखाया है।
सानदार लेख।
ReplyDeleteधन्यवाद बंधू, आपका संक्षिप्त कॉमेंट मेरे उत्साहवर्धन के लिए अमृत समान है।
Deleteसानदार लेख।
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