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बामपंथ : मार्क्सवाद से मूर्खतावाद तक। ===========================

समाज में साम्यता-समानता लाने के लिए, एक महान विचारों का प्रतिपादन कार्ल मार्क्स ने किया था। मार्क्स के उद्दात विचारों से प्रभावित होकर विश्व के बहुत सारे देशों के असंख्य लोगों ने उनके विचारों को जमीन पर उतारने का भरसक प्रयत्न करता रहा है।

मार्क्सवाद की पहली नीव 1917 में जार की मूर्खताओं कारन रूस में पड़ा। सोचा गया था मार्क्स के सिद्धांतों से प्रभावित होकर एक अच्छी शासन व्यवस्था, जो समानता आधारित, लोगों की इच्छा-आकांक्षा आधारित होगा । लेकिन रूस में स्टालिन ने मार्क्सवाद की जगह मूर्खतावाद को तरजीह देते हुए दमन, अत्याचर, उत्पीड़न पर आधारित एक तानाशाही व्यवस्था जनता पर बलात लाद दिया। जिसने इस तानाशाही-अत्याचारी व्यवस्था का बिरोध किया उसका मुंह बंद करने के लिए उसे ही मिटा दिया गया। पार्टी के शासन को जनता के शासन का नाम देकर आम जनता का दमन किया गया। ऐसा शासन, ऐसी ब्यवस्था मार्क्सवाद तो नहीं हो सकता है, हाँ मूर्खतावाद जरूर हो सकता है।

पूरे विश्व में कमोवेश बामपंथियों ने मार्क्सवाद की जगह मूर्खतावाद को ही प्रश्रय दिया। इसीका परिणाम रहा हर जगह यह तनशाही की बर्बर व्यवस्था कुछ ही दिनों में अकालमृत्यु को प्राप्त हुआ है। खुद वहां की जनता ने इस बर्बर व्यवस्था को उखाड़ फेंका और लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया।

भारत में भी रुसी घटनाक्रम से उत्साहित कुछ अंग्रेजीदां लोगों ने मार्क्स के विचारों के अनुकूल बामपंथी व्यवस्था के लिए कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया। जैसा की बामपंथियों के लिए प्रसिद्द है वो मार्क्सवादी कम और मूर्खतावादी अधिक होता है, भारत में भी उसने उसी का परिचय दिया। जनता के बीच में नारा कुछ और लगाता था और उसके पीछे उसका मंतव्य कुछ और छुपा होता था। यानि वो छल और छद्म से भारत में शासन लाना चाहता था। जैसा की होता है छल और छद्म की व्यवस्था जयादा दिन नहीं टिकता है वैसा ही हुआ भारत में बामपंथ आजादी के पहले और बाद में भी कही पनप नहीं पाया। जबकि उसके पनपने का पूरा अवसर भारत में था। क्योंकि हमारा समाज असमानताओं के ढेर पर खड़ा है। इसके बाद भी यहाँ साम्यवाद नहीं पनप सका तो इसका पूरा दोष केवल और केवल मार्क्सवादियों के मूर्खताओं, उसके छल-छद्म को जाता है।

मार्क्सवादियों की मूर्खतावाद की एक छोटी सी उद्धरण देखिए : पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में भारत के बामपंथी भारत को रुसी साम्राज्य का अंग बनाने, रुसी इच्छा-आकांक्षाओं के अनुकूल बामपंथी व्यवस्था भारत पर लादने की लड़ाई लड़ता रहा और जनता के बीच प्रचारित करता रहा हम भी भारत के स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसी ही मूर्खताओं के कारन बामपंथियों की हास्यास्पद स्थिति तब हो गई, जब ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषण कर दिया। संयोग से तब स्टालिन भी हिटलर के खेमे में हुआ करता था। बामपंथियों ने इसे साम्राज्यवादी युद्ध की संज्ञा देकर जर्मनी के समर्थन में ब्रिटेन के खिलाफ लड़ाई का शंखनाद कर दिया। फिर जैसे ही हिटलर ने रूस पर आक्रमण कर दिया परिणामस्वरूप रूस ब्रिटेन एक खेमे आ गया, तब ये मूर्खतावादी बामपंथी इसे जनयुद्ध की संज्ञा देकर अंग्रेजों का साथ देना शुरू कर दिया। यानी पहले जो साम्राज्यवादी युद्ध था वो अब जनयुद्ध हो गया, बामपंथी मूर्खतावाद का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा ?

ऐसे ही बामपंथी मूर्खतावाद आप आज भी भारत में देख सकते है। हाल के जेएनयू की घटनाक्रम को देखेंगे तो समझ में आ जाएगा। आखिर जेएनयू में 9 फरबरी को हुआ क्या था ? बामपंथी छात्र संगठनों के सहयोग से कुछ अति बामपंथी और कश्मीरी आतंकी भारतीय संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु जिसका फांसी हो चूका है उसके बरसी का आयोजन किया था। एक आतंकवादी के बरसी में जैसा नारा लगना चाहिए वैसा ही नारा वहां लगा पाकिस्तान जिंदाबाद, भारत हो बरबाद, अफजल हम शर्मिंदा है तेरे कातिल जिन्दा है, आदि-आदि। स्वाभाविक है ऐसे देश बिरोधी गतिविधि को कोई सरकार बर्दास्त नहीं कर सकता है। सरकार ने करवाई किया, कुछ आयोजनकर्ता गिरफ्तार किए गए। बामपंथियों में यदि नैतिक साहस था तो उसे कहना चाहिए, हाँ मैंने अफजल का बरसी मनाया है/मनाऊंगा, मुझे अफजल के विचारों से सहमति है, अफजल मेरे लिए शहीद है। लेकिन बामपंथियों ने यहाँ भी अपनी कायरतापूर्ण मूर्खता का परिचय दिया। आयोजन पर तो चुप्पी साध लिया और गिरफ़्तारी पर भौंकना चालू रखा।

यानि बामपंथी जो है और जो उसका मूल उद्देश्य होता है वो कभी दिखाना नहीं चाहता है और जो दिखाता है वो उसके मूल उद्देश्य से बिलकुल मेल नहीं खाता है। जिसका परिणाम है आज भारत में बामपंथ अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। यह बामपंथ के मार्क्सवाद से मूर्खतावाद तक की परिणति है।















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