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महान क्रांतिकारी तथा "धरती-आबा' (जगत्पिता) बिरसा मुण्डा

शूरवीर बिरसा
द वचनेश त्रिपाठी "साहित्येन्दु'
सन् 1890-92 के कालखण्ड में छोटा नागपुर के अधिकांश वनवासी चर्च के पादरियों के बहकाने पर ईसाई हो गए थे। यहां तक कि थोड़ी अंग्रेजी पढ़ा-लिखा रांची जिले का बिरसा मुण्डा भी एक जर्मन पादरी के कहने पर चाईबासा में ईसाई हो गया। परन्तु शीघ्र ही वह न केवल स्वयं ईसाई मत त्यागकर हिन्दू धर्म में लौट आया, वरन् उसने उस क्षेत्र के अन्य वनवासियों का भी हिन्दू धर्म में परावर्तन किया। यही बिरसा मुण्डा आगे चलकर एक महान क्रांतिकारी तथा "धरती-आबा' (जगत्पिता) के नाम से विख्यात हुआ। विदेशी पादरियों के प्रभाव और धर्मान्तरण के षड्यंत्र से वनवासी बन्धुओं को बचाने के लिए बिरसा मुण्डा ने अपने समाज के लोगों को पवित्र जीवन की शिक्षा देकर उन्हें यज्ञोपवीत धारण कराया। देश को स्वतंत्र करने के प्रयास में अत्याचारी अंग्रेजों के विरुद्ध उसने अपने समाज के लोगों में ऐसी क्रांति-ज्वाला धधकाई कि रांची के अंग्रेज कप्तान मियर्स ने 1895 की 24 अगस्त को बिरसा मुण्डा को सोते समय रात में गिरफ्तार कर लिया। उसके मुंह में रूमाल ठूंसकर एक हाथी पर बैठाकर रातोंरात रांची लाया गया और काराबद्ध कर दिया गया। बाद में बिरसा के 15 अनुयायी भी गिरफ्तार कर लिए गए। रांची अनुमण्डल के "खूंटी' न्यायालय में बिरसा पर मुकदमा चला। इस मुकदमे में बिरसा के काराबद्ध 15 अनुयायी भी शामिल थे। उनके नाम थे-मार्टिन, मान्वी, मागो मानकी, मोटा (विरसिंग), रसई (मोसू), साही, सुंगा, हुंग्रा, सुन्दर, सहदेआ, कोंटा (सोमा), पंडु, दाखिन माउद, लुडरू और विरसिंग (द्वितीय)। अंग्रेजों को भय था कि कहीं वनवासी फिर से उग्र प्रदर्शन न करें इसलिए उन्होंने सभी कैदियों को रांची लाकर 1895 की नवम्बर में रांची के उपायुक्त के न्यायालय में मुकदमा चलाया। सभी को 2 वर्ष से 16 महीने तक की सजाएं दी गईं और साथ ही साथ 50 रु. व 20-20 रु. जुर्माना भी लगाया गया था। जुर्माना न भरने पर बिरसा को 6 महीने तथा शेष सभी को 3-3 महीने की सजा दी गयी। तत्पश्चात् बिरसा और उसके दल ने सशस्त्र क्रांति का रास्ता अपनाया। सैनिक संगठन शुरू किया गया। मुण्डा, डेमका मुण्डा (बड़ी मौजा), सुन्दर मुण्डा (बर्जा), हतिराम मुण्डा (गुटुहाटू), दुखन सावंसी (गोवा), पनऊ मुण्डा (कातिंग केल) और रिसा मुण्डा उसके दल के प्रमुख थे। उनका केन्द्र "खूंटी' में बना। उन्हें शस्त्र-प्रशिक्षण रांची, सिसई, बसिया, तोरपा, तमार, चक्रधरपुर, कर्रा और बुन्डु नाम के स्थानों पर दिया जाता था। इस दल के कई क्रांति-प्रचारक नियुक्त हुए, जो गुप्त बैठकें करते थे। ये बैठकें बन्टीडीह मारीहाट, कुसुमटोली, कोटघरा, सताल, बिचाकुटी, गोपीमुण्डा के घर और डुमरी में 1898 से 1899 की 24 दिसम्बर तक चलीं। एक बैठक में योजना बनी कि ठीक 25 दिसम्बर को क्रिसमस के दिन अंग्रेजों पर धावा बोला जाए। परन्तु 25 दिसम्बर से 2 दिन पूर्व ही बिरजु, सरवादा और मरहु आदि स्थानों पर ईसाई मतान्तरण के केन्द्रों पर धावे बोल दिए गए। उस अभियान का नेतृत्व गया मुण्डा ने किया। बाद में 7 जनवरी, 1900 को खूंटी पुलिसथाने पर 300 मुण्डा वीरों ने भाले, कुल्हाड़ियां, टांगी, तीर-कमान लेकर धावा बोला जिसमें एक पुलिस वाला मारा गया। तब डेढ़ सौ सैनिकों के साथ रांची के उपायुक्त और छोटा नागपुर प्रमंडल के आयुक्त कोर्बस रांची आए। उसने सिपाहियों को मुण्डाओं पर गोली चलाने को कहा। इस गोली-वर्षा में स्त्रियों, बच्चों सहित दो सौ मुण्डा मारे गए। घायल हतिराम मुण्डा और सगराई मुण्डा जिन्दा ही दफन कर दिए गए। यह गोली काण्ड 9 जनवरी, 1900 को हुआ जिसमें मनाल, नरसिंह, डोका, बंगराई, सानिक, रूसु, सगराई, सम्बराई, हंगा, रेपो, संपु, भगता, हतिराम और हरिमुण्डा शहीद हुए। उस दिन बिरसा और गया मुण्डा डुमरी पहाड़ी पर थे। बिरसा भगत को विश्ववासघातियों की मुखबिरी से रातोंरात सोते समय गिरफ्तार किया गया। अंग्रेजों की ही रपट के अनुसार "उन्हें रांची जेल में 30 मई, 1900 को हैजा हुआ और 2 जून (या 3 जून) को जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई'। परन्तु मुण्डा लोग मानते हैं कि जेल में अंग्रेजों द्वारा उनकी हत्या की गई थी। रांची में व नई दिल्ली स्थित संसद भवन में बिरसा की स्मृति में उनकी मानवाकार मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं।

http://panchjanya.com/arch/2000/1/2/index.htm

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