लोकोत्तर महामानव ईश्वर चंद्र विद्यासागर की संघर्ष-गाथा
ब्राह्मण क्रांति-भाग एक
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भारत में ब्रिटिश दासता काल में सामाजिक सुधारों की जो हवा चली उसमें बंगभूमि ने सर्वाधिक क्रांतिकारी श्रीगणेश किया। ईश्वर चंद्र विद्यासागर बंगाल के वंद्योपाध्याय कुल में पैदा हुए ऐसे ही महान समाज सुधारक तपस्वी भारतविद् ब्राह्मण थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन न केवल समाज सुधार कार्य में अर्पित किया बल्कि अंग्रेजीराज के समय सबसे पहले भारतवासियों को विशुद्ध भारतीय भाव धारा के आधार पर भारत में प्रचलित सामाजिक दोषों को अपने जीवन से उखाड़ फेंकने की मौलिक प्रेरणा दी।
अंग्रेजीराज के पुनर्जागरण में उनके पहले यह कार्य एक अन्य ब्राह्मण राम मोहन(बंद्योपाध्याय) रॉय ने प्रारंभ किया था। राजा राम मोहन रॉय भी वंद्योपाध्याय कुल के ही ब्राह्मण थे किन्तु उनमें और ईश्वर चंद्र की पृष्ठभूमि में पर्याप्त अंतर था। ईश्वर चंद्र ने किशोरावस्था में कदम ही रखा था कि राजा राम मोहन रॉय का 27 सितंबर 1833 को स्वर्गवास हो गया। ईश्वर 1820 में पैदा हुए। दोनों की उम्र में पचास साल का फर्क था। ईश्वर चंद्र उनसे उम्र में बहुत छोटे और अति निर्धन थे, जबकि राजा राम ज्येष्ठ होने के साथ-साथ धन-धान्य से सम्पन्न। एक मौलिक अंतर और था। अंग्रेजी राज में समाज सुधारों का जो बीड़ा राजा राम मोहन रॉय ने अंग्रेजी सभ्यता की कथित श्रेष्ठता के प्रभाव में उठाया था, यहां तक कि ईसाई मत के प्रभाव में आकर वह हिन्दू धर्म के कुछ मौलिक सिद्धांतों और उससे जुड़े कर्मकांड के मुखर आलोचक बन गए, ब्रह्म समाज का संगठन कर उन्होंने एक प्रकार से नए पंथ की भी बुनियाद रखी किन्तु इसके विपरीत उस समय के सुधार आंदोलन को ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने भारत की मौलिक भावभूमि से जोड़ने और भारतीय ज्ञान परंपरा की ओर मोड़ने की अभिनव पहल की और इसमें जबर्दस्त सफलता भी प्राप्त की। उनकी परंपरा में ही आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द, तिलक, गांधी, महामना मालवीय समेत कितने ही महापुरुषों ने पुनर्जागरण की दिशा को अंग्रेजीराज और अंग्रेजी सभ्यता से स्वतंत्रता की ओर मोड़ दिया। यह कार्य इसीलिए सफल हो सका क्योंकि अंग्रेजों की साजिशों से धूलधूसरित अंधेरे मार्ग पर नई पीढ़ी को सही बात बताने के लिए ईश्वर साक्षात रोशनी की मशाल बन गए।
यही कारण है कि उनकी प्रतिभा से प्रभावित अंग्रेज विद्वान और पादरी उनसे बाद में नाकभौं सिकोड़ने लगे। ईसाई मत से दूर रहने के कारण उनकी आलोचना करने लगे। दरअसल ईश्वर चंद्र ने सामाजिक सुधार की अपनी पीड़ा और प्रेरणा के पीछे अंग्रेजीराज की उत्प्रेरक भूमिका को सिरे से नकारकर उस मानवीय करुण-भावधारा को तीव्रता प्रदान की जिसने बुद्ध-शंकर-नानक-कबीर-तुलसी-रविदास से लेकर मध्यकाल तक हर शताब्दी में संत स्वरुप में भारतीय जन-मन को गहरे प्रभावित, आप्लावित और संचालित किया। यही कारण है कि वह उन्नीसवीं सदी के सर्वोत्तम महापुरुषों में गिने गए, लोकोत्तर महामानव की यह संज्ञा उन्हें उन माइकल मधुसूदन दत्त ने दी जिन्होंने ईसाई प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म का परित्याग कर दिया। उन्हीं माइकल मधुसूदन दत्त के जीवन के आखिरी समय में जब कष्ट और दुख के बादल मंडराए तो उन्होंने सहायता के लिए ईश्वर चंद्र को आवाज दी। ईसाई मत के पादरी या अफसरों ने मतांतरण के बाद उनका काम समाप्त होते ही उनसे दूरी बना ली। इस सत्य को पहचान कर उन्होंने ईसाई पादरियों को आवाज देने की बजाए सनातन हिन्दू जीवन की भाव भूमि में निरंतर रचे-बसे और जागृत ईश्वर चंद्र विद्यासागर का ही दामन थामा। ईश्वर चंद्र विद्यासागर माइकल मधुसूदन के अन्तिम दिनों में फरिश्ते की तरह खड़े हुए।
ईश्वर चंद्र वंद्योपाध्याय अर्थात ईश्वर चंद्र विद्यासागर के बगैर भारत में सामाजिक पुनर्जागरण की बात करना सही नहीं हो सकता। वस्तुतः भारत में जागरण और पुनर्जागरण तो हर शताब्दी में अपने अपने तरीके से चलता ही रहा था किन्तु अंग्रेजी राज में जो पुनर्जागरण पैदा हुआ जिसने कालांतर में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रत्येक भारतीय में आशा-विश्वास का नवीन भाव उत्पन्न किया, उसका प्रथम महानायक अगर सचमुच कोई था तो वह ईश्वर चंद्र ही थे। 19वीं सदी के चौथे और पांचवे दशक(1840-50) में भारत में सरकारी मदद के बगैर निजी स्कूलों की श्रृंखला ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने प्रारंभ की थी जिसमें दाखिले में सरकार नियंत्रित स्कूलों की तरह भेदभाव नहीं था। उनके दरवाजे सबके लिए खुले थे, क्या ब्राह्मण और क्या अनुसूचित। सभी जातियों के प्रतिभावान बच्चों के लिए उन्होंने ही सबसे पहले अंग्रेजी राज में स्कूली शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया।
भारत में ईसाई रिलीजन और यूरोपीय सभ्यता की श्रेष्ठता के प्रचार-प्रसार की कूटनीति-रणनीति से भरे उस विभाजनवादी अंग्रेजीराज में जब कई समाज सुधारक महापुरुष अंग्रेज अफसरों की राय से रणनीति और ईसाई पादरियों की राय से आंदोलन की रीति तय करते थे, सुधार के नाम पर केवल हिन्दू धर्म के विरुद्ध बगैर किसी समस्या की जड़ को जाने-समझे उलजुलूल जहर उगलते थे, तब ईश्वर चंद्र विद्यासागर हर सुधारात्मक कदम के लिए सनातन परंपरा के मूल ग्रंथों और संतों की ओर देखते थे और उसमें से समाधान ढूंढ निकालते थे।
उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह बहुविवाह निषेध, बाल विवाह निषेध, जनजाति कल्याण, पिछड़े और वंचित हिन्दुओं समेत सभी वर्ग-वर्ण के लोगों के जीवन और चिंतन में क्रांतिकारी बदलाव के लिए मौलिक प्रयत्न किए और उन सभी मुद्दों पर सामाजिक चिन्तन-मंथन को सकारात्मक दिशा प्रदान करने का साहसिक कार्य सम्पन्न कर दिखाया जिनके बारे में उनके योगदान पर आज के कथित समाज-चिन्तक केवल इसलिए मौन साध जाते हैं क्योंकि ईश्वर चंद्र विद्यासागर ब्राह्मण जाति में पैदा हुए थे।
साधारणतया यह माना जाता है कि भारत में कथित वंचित-दलित और पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के लिए आधुनिक शिक्षा और स्कूल प्रवेश का रास्ता डॉ. अम्बेडकर और उनके जैसे अन्य सुधारकों के प्रयासों के बाद अंग्रेज सरकार ने तैयार किया। निःसंदेह डॉ. अम्बेडकर समेत अन्य सुधारकों ने अपने प्रांत की स्थिति-परिस्थिति के अनुसार सामाजिक सुधार आंदोलन को अपनी रीति से गति प्रदान की किन्तु वास्तविकता यही है कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर प्रथम थे जिन्होंने सभी हिन्दू जातियों को एक स्कूल में एक साथ पढ़ने और पढ़ाने के कार्य का श्रीगणेश अंग्रेज अफसरों की इस राय के विरुद्ध जाकर किया कि इससे समाज में तनाव व्याप्त हो जाएगा। उन्हें स्पष्ट था कि अंग्रेज विभाजन की रणनीति पर चल रहे हैं, इसीलिए सरकारी स्कूलों में भेदभाव को योजनापूर्वक अंग्रेजों ने जगह दी है।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने इस तथ्य को भलीभांति समझ लिया कि अंग्रेजी सरकार और अंग्रेज विचारक भारत में सामाजिक सुधारों के नाम पर अच्छी नीयत से काम नहीं कर रहे हैं। इसका उल्लेख उनके पत्रों में मिलता है जो समय समय पर उन्होंने अपने सहयोगियों को प्रेषित किया। एक तरफ तो अंग्रेज नुमाइंदे ब्रिटिश सरकार द्वारा खोले गए स्कूलों में वंचित-दलित वर्ग के बच्चों को प्रवेश देने के सवाल पर झिझकते थे तो दूसरी ओर उनका पादरी वर्ग इस बात के लिए उच्च जाति के हिन्दुओं को जिम्मेदार ठहरा रहा था ताकि जातियों में अनावश्यक विभाजन की खाई बढ़ती चली जाए। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने इसके विपरीत जाते हुए न केवल सरकारी स्कूलों में वंचित-दलित सभी वर्ग के बच्चों के दाखिले का अभियान अपने हाथ में लिया और दाखिला शुरू भी कराया बल्कि सरकार से इतर जाकर निजी और सामाजिक स्तर पर विद्यालयों की ऐसी श्रृंखला प्रारंभ कर यह भी सिद्ध कर दिया कि सभी जाति-वर्ग के बच्चों की साथ-साथ शिक्षा के सवाल पर समाज के बहुमत की ओर से कभी रूकावट पैदा नहीं की गई। यह कुछ मुट्ठीभर लोगों की अपनी मंशा और अंग्रेज प्रशासन की मिलीभगत का नतीजा था कि सरकारी स्कूलों में भेदभाव को स्वयं अंग्रेज सरकार ही बढ़ावा दे रही थी और दोष कथित उच्च जातियों के हिन्दुओं पर मढ़ा जा रहा था। उन्होंने सामाजिक सुधार के अनेक प्रश्नों पर 25000 से ज्यादा बंगाली परिवारों के हस्ताक्षर से युक्त पत्र कोलकाता में अंग्रेज वायसरॉय को सौंपा जिसमें 15000 से अधिक परिवार ब्राह्मण वर्ण से संबंधित थे। इस प्रकार उन्होंने अंग्रेजों की ओर से किए जा रहे इस दुष्प्रचार की हवा निकाल दी कि उच्च जातियों के हिन्दू सामाजिक सुधार चाहते ही नहीं है।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने सामाजिक बुराइयों की परत दर परत उधेड़ने का भी कार्य किया। मध्यकाल में विदेशी आक्रमणों, मुस्लिम आततायियों के डर से बच्चियों के विवाह बचपन में ही कर दिए जाने समेत सभी सामाजिक मसलों का उन्होंने गहन अध्ययन किया और शास्त्रार्थ के लिए हर उस विद्वान को ललकारा जो इसे धर्मसम्मत बताता था। ईश्वर चंद्र के विद्वत्तापूर्ण तर्कों के सामने किसी भी सामाजिक बुराई को धर्मसम्मत बताने वाले मुट्ठीभर लोगों की एक न चली। उन्होंने बहुसंख्यक समाज के मन और भाव को पहचानकर, उसे साथ लेकर सामाजिक बुराइयों के अन्त के लिए अंग्रेजीराज में कानून को हथियार बनाया, और सामाजिक बुराई को प्रश्रय देने वाले व्यक्ति के लिए दण्ड अनिवार्य कराया। इस कार्य में उन्होंने कितनी ही कठिनाइयां झेलीं लेकिन अपने सत्य पथ से उन्होंने हटना या झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। विधवा पुनर्विवाह को जब उन्होंने कानूनी मान्यता दिलवाई तो अपने बेटे का विवाह एक किशोर वय की विधवा बेटी से कर समाज में क्रियात्मक आदर्श भी रखा। अपने अनेक ब्राह्मण मित्रों और समाज के अन्य बंधुओं को उन्होंने अपनी विधवा हो चुकीं बेटियों के पुनर्विवाह के लिए प्रयासपूर्वक राजी कर बंगाल की मानसिक चिन्तन की हवा ही बदल दी।
वस्तुतः ईश्वर चंद्र विद्यासागर का स्वयं का जीवन उन अनेक मिथकों को ध्वस्त करने की दिशा में मील का पत्थर है जिन मिथकों को अंग्रेजों ने और बाद में उनके बौद्धिकों के द्वारा पोषित-समर्थित सामाजिक सुधार के वाम-पक्षकारों ने योजनापूर्वक गढ़ा और प्रत्येक सामाजिक बुराई के लिए सीधे-साधे भोले हिन्दुओं के धर्म पर ही आरोप मढ़ दिया। इसका मकसद था कि किसी प्रकार से पढ़े-लिखे हिन्दू अपने धर्म से विमुख हों और अंग्रेजी भाषा-वेषभूषा से सम्पन्न ईसाई रिलीजन के प्रसार के लिए उचित वातावरण मिल सके। किन्तु ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने जो जनजागृति पैदा की उसने अंग्रेजों की सारी रणनीति को ही धराशायी कर दिया। उदाहरण के लिए, उस कालखंड में अंग्रेज अफसरों, पादरियों और कथित समाज सुधारकों का सारा जोर सदैव ब्राह्मणों को कट्टरपंथी और सामाजिक सुधार विरोधी सिद्ध करने में लगा रहता था, सामाजिक विभाजन की सारी चालें अंग्रेज और उनके समर्थक रचने में माहिर हो चले थे किन्तु उनके सारे प्रयासों को अकेले ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने निजी जीवन और प्रयत्न पूर्वक किए गए आचरण से ही मात दे दी। सभी मिथ्या आरोपों को एक झटके में खारिज करने के लिए अकेला उनका जीवन कार्य ही उस शताब्दी में पर्याप्त दिखने लगा।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर का जन्म
ईश्वर चंद्र बंगाल के वीरसिंह ग्राम के जिस ब्राह्मण वंद्योपाध्याय कुल में पैदा हुए, उस परिवार की गरीबी को देखकर कथित वंचित और दलित वर्ग के लोग भी उन पर दया करते थे। टूटी-फूटी घास-फूस की मंड़ई वंचित वर्ग की बस्ती के साथ ही थी।पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा के जरिए ही ईश्वर चंद्र के दादा रामजय वंद्योपाध्याय गृहस्थी की गाड़ी खींचते थे। पिता ठाकुरदास के पास रोजी-रोटी का कोई स्थायी जरिया ही नहीं था सिवाय पंडिताई करने के। उस विकट अंग्रेजीराज में जबकि चारों ओर केवल और केवल सरकार के स्तर पर विशेष मत और रिलीजन को बढ़ावा मिल रहा था, परंपरा की बात करने वाले केवल हीन दृष्टि से देखे जा रहे थे, योजनापूर्वक दरिद्र बना दिए गए थे। इन परिस्थितियों में 26 सितंबर 1820 को ईश्वर चंद्र वंद्योपाध्याय पैदा हुए तो दादा जयराम ने ये सूचना बेटे ठाकुरदास को इस रूप में दी कि एंड़ बाछुर पैदा हुआ है, अर्थात एक बछवा पैदा हुआ है। पिता ठाकुर दास कहीं दूर से आए थे, उन्हें लगा कि पहले से गाभिन गाय ने बछवा जना है लेकिन फिर दादा जयराम ने बात को सही कर दिया कि ये बछवा इतिहास रचेगा। उसकी जन्मकुंडली कह रही है कि जो ठान लेगा वह करके ही मानेगा। किसी के आगे ये झुकने वाला नहीं है। इसकी ईमानदारी, सादगी, न्यायप्रियता की चर्चा दिग-दिगंत में होगी। गरीबी और आर्थिक विपन्नता इसका रास्ता नहीं रोक पाएगी। युगों तक इसका नाम मानव जाति याद रखेगी।
(क्रमशः)
(प्रोफेसर राकेश उपाध्याय जी के फेसबुक वाल से साभार)
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