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चौरी चौरा कांड और महात्मा गांधी

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यद्यपि चौरी चौरा कांड सांप्रदायिक न था, परंतु यह भी गांधी जी की गलत नीतियों का परिणाम था और इसकी त्रासदी भयंकर दंगो से कम नहीं थी। 

इसके अभियुक्त गांधी जी के सत्याग्रह के वालंटियर थे, जो सच्चे मन से अहिंसा का पालन करते हुए,  हर तरह के अत्याचार सहते हुए, शराब और अफीम और दूसरे नशीले पदार्थों के साथ मछली-मांस की बिक्री रोकने के लिए धरना देते थे। 

सत्याग्रहियों के साथ अकारण अपमानजनक व्यवहार के विरोध में थानेदार को क्षमा याचना के लिए मजबूर करने को जब सत्याग्रही भारी संख्या में बाजार में एकत्र होने लगे तो घबरा कर थानेदार ने भीड़ को तितर बितर करने के लिए हवाई फायरिंग कर दी थी। जवाब में सत्याग्रही पत्थरबाजी करने लगे थे। 

गांधी जी ने स्वयंसेवकों को संगठित रखने के लिए हथियार के बिना,  सैनिक अभ्यास से मिलते जुलते व्यायाम के लिए प्रेरित किया था। यह नाजियों के अभ्यास से मिलता-जुलता था और यह भी एक संयोग ही है कि लगभग एक ही समय आरंभ हुआ था। इसी नमूने पर कुछ बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चला था जिसने लेजिम की जगह डंडा अपना लिया।  

व्यायाम सिखाने वाले गुरु का आदर किसी आचार्य से कम नहीं होता। ऐसे ही एक उस्ताद भगवान अहीर को पुलिस ने अकारण दंडित और अपमानित किया था। 

कांग्रेस का स्वयंसेवक बनने को कुछ भावी प्रलोभन प्रचारित किए जा रहे थे। गांधी का आंदोलन अहिंसात्मक तो था, परंतु मद्य-मांस के विरोध में  धरना देना हिंसा को आमंत्रित करता था।  इसका अनुरोध तो किया जा सकता था, पर हिंसक या अहिंसक, किसी रूप में समानांतर प्रशासन नहीं चलाया जा सकता था। यह अव्यावहारिक था, इसका प्रमाण भविष्य के गर्भ में था। स्वतंत्र भारत में भी इन पर रोक नहीं लगी। पर तत्कालीन दृष्टि से यह अहिंसात्मक नहीं रह जाता। हिंसा करना और हिंसा की परिस्थितियां पैदा करना पर्यायवाची हैं। 

गांधी जी यदि इतिहास से अनभिज्ञ थे तो भी मोपला नरसंहार में वह मुसलमानों के उपद्रवी स्वभाव से परिचित हो चुके थे। उनके इस स्वभाव की याद दिलाकर अंग्रेज भी उनको काबू में लाते रहते थे और सर सैयद अहमद ने अपने मेरठ भाषण में इसे कई रूपों में दुहराया भी था। यदि गांधी जी को इतिहास और वर्तमान की मोटी समझ (बोध) भी होती तो आंदोलन मोपला नरसंहार के बाद ही, यह भांप कर कि मुसलमानों को साथ लेने पर कोई आंदोलन अहिंसात्मक रह ही नहीं सकता, इसे स्थगित कर दिया होता।  

चौरी चौरा की घटना में जिस बात को ओझल कर दिया जाता है, वह यह कि भीड़ भले हिंदू-मुस्लिम किसानों और खेतिहर  मज़दूरों की रही हो, पर उसका उपद्रवी (पत्थरबाजी और आगजनी) का नेतृत्व मुसलमानों के हाथ था, जिसका स्पष्ट उल्लेख हाईकोर्ट ने अपने फैसले में किया है।   

हवाई फायरिंग के बाद जब प्रदर्शनकारी ईंट पत्थर फेंकने लगी तो थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने गोली चलवा दी, जिसमें बहुत से प्रदर्शनकारी मारे गए और इसके बाद जब उनकी गोलियां खत्म हो गई तो भीड़ ने वह काम किया जिसमें थानेदार सहित 11 पुलिसकर्मी और 10 चौकीदार आग की भेंट चढ़ गए, जब कि बीस चौकीदार बच निकले थे और एक सिपाही जो परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए उच्च अधिकारियों को इसकी सूचना तार से भेजने के लिए निकला था, बच गया था और पुलिस की ओर से वही एकमात्र गवाह था  जो घटना के समय वहां था ही नहीं।

आंदोलनकारियों ने, घटना की परिस्थितियों का स्पष्टीकरण  जब कांग्रेस के जिला कार्यालय को देना चाहा तो उन्होंने उनकी बात ही न सुनी, मूर्ख और गंवार कह कर भगा दिया। क्यों? सुनना तो चाहिए था। इसलिए कि वे इसके परिणामों की कल्पना कर के ही घबरा गए थे। 

यही प्रतिक्रिया गांधी जी की थी. “जैसे ही गांधी जी को चौरी चौरा की घटना की सूचना प्राप्त हुई, उन्होंने 12 फरवरी 1922 को फैसला ले लिया और साथ ही यह भी जड़ दिया:
"चौरीचौरा में भीड़ के अमानुषिक व्यवहार को ध्यान में रखकर सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस लिया जाता है। गांधी जी इस निर्णय के साथ ही 5 दिन के उपवास पर चले गए।’’

व्यंग्य यह कि बारदोली किसानों का आंदोलन 1 फरवरी को आरंभ हुआ था। उसकी प्रकृति चंपारन के निलहे किसानों से मिलती जुलती थी।  उसे भी इसके साथ ही स्थगित कर दिया गया। क्यों?  दहशत।  

मुख्य अभियुक्त गांंधी थे।  उनके स्वयंसेवकों ने पूरी निष्ठा से अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया था, पर उनमें से प्रत्येक गांधी के मंत्रबल से गांधी न हो पाया और गांधी अपने जीवन में स्वयं अपने सुनियोजित और मैनरिज्म द्वारा निर्मित और विज्ञापित छवि की तुलना में राजनीतिक रूप में बहुत तुच्छ थे। स्वयं गांधी ने, जैसा हम देख आए हैं, एक बार अपमानित होने के बाद सत्याग्रह पूर्वक उसे दुहरा कर रंगभेदियों का हृदय परिवर्तन  नहीं कराया। उससे पलायन कर गए और तीसरी श्रेणी में चलने लगे। 

दुख सहा जा सकता है, पर अपमान नहीं। अपने व्यक्तिगत मामले में गांधी दोनों में फर्क करते थे, पर अपेक्षा करते थे कि उनके अनुयायी अपमानजनक स्थितियां पैदा करते रहें, अपमान सहते रहें, पर प्रतिवाद न करें, क्योंकि सक्रियता आंदोलन की जरूरत थी। गांधी अपने समर्थकों को सुपरगांधी न बन पाने के कारण उनकी भर्त्सना करते थे।  

चौरी चौरा कांड में यदि स्थानीय शाखा ने उनके पक्ष को नहीं जानना चाहा तो गांधी को वास्तविकता का पता लगाना चाहिए था। आखिर यह उनका आंदोलन था।  यदि विफल हुआ तो विफलता के कारणों की जांच तो करनी ही थी।  अभियुक्त अपराधी नहीं होता। अपराधी वह दोष-सिद्धि के बाद होता है।  गांधी जी ने  अपने ही सुझाए रास्ते पर चलने के कारण, इस परिणति तक पहुंचने वाली दुर्घटना की कहानी जाने बिना ही, अपने अनुयायियों को स्वयं अपराधी घोषित करके यह आंदोलन क्यों स्थगित कर दिया और पांच दिन के अनशन पर क्यों चले गए ?  ऐसा उन्होंने अपने वालंटियरों को मौत के मुंह में झोंक कर सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए किया। 

ऐसा उन्होंने केवल इसी बार नहीं किया, अनेक बार किया। सबसे विचित्र है भगत सिंह को फांसी दिए जाने की सजा से पहले गांधी-इर्विन समझौते के अवसर पर उनका इर्विन से संवाद। इर्विन ने सोच रखा था कि इस अवसर पर गांधी जी उनसे दंड में रियायत की बात सबसे पहले उठाएंगे।  गांधी जी ने इसका जिक्र तक नहीं किया। बाद में इर्विन ने स्वयं उनसे पूछा कि उसमें आपकी क्या राय है तो उन्होंने कहा कि यह पुलिस और प्रशासन का काम है।  ध्यान दें, इर्विन के अपनी ओर से पूछने का आशय था कि मानसिक रूप में वह भगत सिंह की फांसी की सजा कम करने को तैयार थे, और गांधी किसी भी कारण से ऐसा नहीं चाहते थे।

भगत सिंह और गांधी जी में तरीके का अंतर तो था, परंतु भगत सिंह गांधीजी  में कौन बड़ा और कौन छोटा है यह इस बात से समझा जा सकता है कि गांधी अपनी जिंदगी और अपनी छवि को बचाने के लिए अपनों और अपने देश और सिद्धांतों की बलि दे सकते थे और देते रहे, जब कि भगत सिंह इन्हें बचाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर सकते थे।  उसी भगत सिंह को गांधी की कायरता के कारण दो बार मृत्युदंड मिला। पहली बार ब्रिटिश कानून के तहत और दूसरी बार गांधी के मन में चौरी-चौरा कांड के बाद समाई दहशत के कारण, कि यदि उससे तनिक भी सहानुभूति दिखाई तो परिणाम दूसरे होंगे। 

मालवीय जी असहयोग आंदोलन के समर्थक नहीं थे और गांधी जी को भी इसके लिए हतोत्साहित किया था।  इस चेतावनी के बाद भी यदि उन्होंने यह खतरा मोल लिया था तो जो कुछ घटित हुआ उसमें गांधी सहअपराधी थे, इसे गांधी जानते थे।  उनके द्वारा असहाय छोड़ दिए गए स्वयंसेवकों को  बचाने की चिंता केवल मालवीय जी को थी। 

मालवीय जी के निर्देशन पर  गांधी के सुपुत्र देवदास गांधी की अध्यक्षता में तत्काल एक जांच समिति गठित की गई, जो घटना स्थल पर जाकर निरीक्षण कर सही तथ्य प्रस्तुत करे।

देवदास गांधी रिपोर्ट के अनुसार चौरीचौरा कांड पुलिस के विवेकपूर्ण कार्यों का परिणाम था।  मालवीय जी ने तत्काल चोरीचोरा सहायता फंड की स्थापना की और फंड में स्वयं सहयोग किया और अन्य सभी का सहयोग जुटाया । उन्होंने श्री के. एम. मालवीय के नेतृत्व में अधिवक्ताओं की टोली का गठन किया, जिसका दायित्व था कि वह चोरीचोरा की घटना में गिरफ्तार लोगों की सहायता करें। कई वकीलों को भेज कर सफाई के लिए आवश्यक तत्वों को इकट्ठा करवाया। 
यह काम उस समय चल रहा था जब चोरीचोरा कांड के बाद उस क्षेत्र में  पुलिस ने अत्याचार और आतंक की हद कर दी थी।‌ बहुत से निर्दोषों को बुरी तरह से मारा पीटा गया और चालान कर दिया गया था। पुलिस के आतंक के कारण स्थानीय कार्यकर्ताओं के लिए अभियुक्तों की सफाई का प्रबंध करना भी संभव नहीं हो पा रहा था।  

यह  मालवीय जी का ही तर्क-कौशल था कि न्याय मूर्तियों को मानना पड़ा कि चूक सरकार की ओर से हुई थी। कि सरकारी गवाहों में बहुत से तो मौके पर थे ही नहीं। कि  वे बेचारे गांधी जी के प्रति अति श्रद्धा के कारण भ्रमित हो गए थे। 

हाईकोर्ट के उस दृश्य का जो चित्र अशोक मेहता ने दिया है उसकी कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार हैं:
The atmosphere in the crowded chief court was tense. When Mahamana stood up to begin, the Chief Justice looked red with rage though justice Piggott was calm.

As Mahamana proceeded in sweet persuasive manner Chiefs attitude changed and resultantly 36 were acquitted and in the case of 110 death penalty was converted to life. In other matters sentence was converted to 8, 5, 3 and 2 years only.
Instead of 170 only 19 were put to gallows.

मालवीय जी के तर्कों में जिनका न्यायमूर्तियों पर विशेष प्रभाव पड़ा उसको उन्होंने स्वयं अंकित किया था:
कि एक राजनीतिक आंदोलन ने इस दुर्घटना का रूप ले लिया; कि अपील करने वाले भोले-भाले किसान हैं; कि स्वराज की भावना का अपना असर था; कि लोग यह मान बैठे थे कि गांधी चमत्कारी पुरुष है।

अदालत इस बात से खिन्न थी कि असली गुनहगार जिस पर इसकी नैतिक जिम्मेदारी आती है और जो आगजनी के लिए जिम्मेदार नज़र अली और लाल मुहम्मद जितना ही बड़ा अपराधी है, उस पर तो मुकदमा चला ही नहीं‌। वह छुट्टा घूम रहा है:
"We cannot take leave of this case without an uneasy feeling that there are individuals at large at this moment, men who have not even been put on their trial in connection with this affair, whose moral responsibility for what took place at Chaura police station on the afternoon of 4th February 1922, at least equal to that which rests upon such men as Nazar Ali and Lal Muhammad, who acted as leaders openly in the light of the day. Mehta, P.195
सच कहें तो यही वह संकेत था जिससे मालवीय जी को इतने सारे अभियुक्तों का दंड कम कराने में सहायता मिली थी, पर उन्होंने इसे जितने कौशल से प्रस्तुत किया था कि इस पर न्यायमूर्ति भी मंत्रमुग्ध रह गए थे और न्यायतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली और अंतिम बार हुआ हो कि उन्होंने मुक्तकंठ से मालवीय जी की प्रशंसा की थी।*
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*The wonderful ability with which you have pleaded this case has earned you the gratitude of all the accused, their families shall ever remain grateful to you for the same. I on behalf of myself and I believe on behalf of my colleague Mr. Justice Piggott also, congratulate you on arguing this case in such a brilliant manner. Nobody else could have presented this case better than yourself.
(Hon’ble Mr. Justice Grimwood Mears, Chief Justice and Hon’ble Mr. Justice Theodore Piggatt (Chauri Chaura Case.) Mehta, P.109-10 repeated on the back flap.

✍️ भगवान सिंह (प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार)

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