क्या भारत में बौद्ध धर्म का विनाश, ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने किया था?
बीबीसी में वरिष्ठ संपादक रहे Shiv Kant जी लिखते हैं :-
पिछले साल लोगों को यह पट्टी पढ़ाने का अभियान चला था कि भारत में बौद्ध धर्म और उसकी विरासत का विनाश हूणों और इस्लामी आततायियों ने नहीं बल्कि पुष्यमित्र शुंग ने किया था। पुष्यमित्र शुंग और उनका चार पीढ़ियों तक चले राजवंश की सत्ता ईसा पूर्व 185 से लेकर ईसा पूर्व 73 तक लगभग 112 वर्ष चली थी। यह भारत के इने-गिने ब्राह्मण राजवंशों में सबसे बड़ा और प्रभावी राजवंश था जो राजकाज पर बौद्ध मठों के कसते शिकंजे को तोड़ने के लिए सत्ता में आया था।
अशोक ने बौद्ध मत अपना कर उसे राजधर्म घोषित करते हुए भारत में राजधर्म की परंपरा कायम कर दी थी जिसके फलस्वरूप बौद्ध संघों और मठों ने राजतंत्र का पूरी तरह अपना गुलाम बना लिया था। पश्चिमोत्तर से यूनानियों और हूणों के हमले हो रहे थे और राजा बौद्ध मठों को पालने और भोगविलास में मग्न थे। इसे बदलने के लिए उज्जैन में अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ के प्रतिनिधि पुष्यमित्र शुंग ने अपने राजा को मार कर शुंग साम्राज्य की स्थापना की और राजधर्म की परंपरा समाप्त कर दी। बौद्ध संघों और मठों के प्रश्रय और प्रभाव के चले जाने से बौद्धों का नाराज़ होना स्वाभाविक था।
कहा जा रहा है कि पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध स्तूपों को तोड़ा और भिक्षुओं को मारा जिसका उल्लेख दूसरी सदी के बौद्ध पुराण अशोकावदान और विभाषा की कथाएँ हैं जिनकी प्रतियाँ श्रीलंका से मिली हैं। एक कथा के अनुसार शुंग अपनी सेना के साथ पटना के कुक्कुतराम बौद्धविहार को ध्वस्त करने गया लेकिन वह चमत्कारिक रूप से बच गया। एक कथा के अनुसार मंत्री की सलाह पर उसने स्यालकोट जाकर एक बौद्ध भिक्षु का सिर लाने के लिए स्वर्ण मुद्रा का ईनाम रखा और कश्मीर के समीपवर्ती बौद्ध मठों को तोड़ कर भिक्षुओं को मारा।
लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि हिंदू पुराणों की तरह बौद्ध पुराण कथाओं को भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं माना जा सकता। तथ्य यह है कि भरहुत और साँची के प्रसिद्ध स्तूपों का निर्माण शुंगवंश के काल में ही हुआ। पुष्यमित्र और उनके वंशज अग्निमित्र को सांस्कृतिक और कलात्मक शिल्प का संरक्षक माना जाता है। शुंग के परवर्ती कुषाण वंश और गुप्त वंश को बौद्ध दर्शन और कला का स्वर्णयुग माना जाता है। नागार्जुन, धर्मकीर्ति, असंग, वसुबंधु, दिङ्नाग और अश्वघोष जैसे महान बौद्ध दार्शनिक इसी युग में हुए। चौथी और सातवीं सदी में चीन से भारत आने वाले फ़ा हियान और शुआन त्सांग ने भी किसी हिंदू राजा के द्वारा स्तूपों, बौद्ध भिक्षुओं या बौद्ध मत के विनाश का कोई उल्लेख नहीं किया है। बौद्ध विद्या के सबसे बड़े केंद्र नालंदा की स्थापना भी हिंदू राजाओं के काल में हुई।
बौद्ध पुराण दिव्यावदान, अशोकावदान और विभाषा की कथाएँ अंतर्विरोधों से भरी हैं। इन्हीं में अशोक द्वारा पटना और बंगाल के जैन मुनियों के सिरों के बदले स्वर्ण मुद्राओं के ईनाम देने और हज़ारों को मार देने की कथाएँ भी हैं। पुष्यमित्र शुंग के नाम पर गढ़ी जा रही आधारहीन अधपकी कथाएँ इस्लामवादियों को रास आती हैं जो बौद्ध विरासत और विद्या के पाशविक विनाश की नैतिक ज़िम्मेदारी किसी और पर डालने को बेचैन हैं। कितना सुविधाजनक है यह कहना कि हज़ार साल के सेनाओं, हथोड़ों, तोपों और आगज़नी के हमलों ने तो बौद्ध धर्म का कुछ नहीं बिगाड़ा पर शुंग के पाँच साल के विजय अभियान ने उसे ख़त्म कर दिया। साथ में भाजपा के विरोध के नाम पर हिंदू आस्था के विरोध की ऐसी लहर चल पड़ी है कि अब बौद्ध, नास्तिक और वामपंथी भी उस में शामिल हो गए हैं। इसके चलते यूरोप और अमरीका के स्कूलों में तो यह हाल हो गया है कि हिंदू बच्चे नफ़रत से बचने के लिए अपनी पहचान छिपाने पर मजबूर हो रहे हैं।
आजकल यह मुहिम चलाई जा रही है कि वाल्मीकि की रामायण के राम वास्तव में पुष्यमित्र शुंग हैं। जिसका मतलब हुआ कि रामायण बुद्ध के बाद की रचना है और संस्कृत पालि के बाद की भाषा है। वेद, उपनिषद और रामायण, महाभारत समेत सारा सनातनी या हिंदू वांग्मय बुद्ध के बाद का है। क्योंकि अशोक के शिलालेखों से पहले का कोई ऐसा शिलालेख, पांडुलिपि या ताम्रपत्र नहीं मिलता जो संस्कृत में हो। लिखित प्रमाण न होने की वजह से सारा प्राचीन इतिहास कपोल-कल्पना है। प्रमाण के रूप में रामायण के अयोध्याकांड के 109वें सर्ग से 34वाँ श्लोक उद्धृत किया जाता है जिनमें बुद्ध और तथागत शब्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ पिता का दिया वरदान पूरा करने के लिए राजपाट छोड़कर वनवास में गए राम को वापिस घर लाने के लिए जाबालि के साथ वन में आए भरत और शत्रुघ्न का प्रसंग है। जाबालि राम को घर लौटने को राज़ी करने के लिए धर्म और नैतिकता से अलग व्यावहारिक दृष्टि से तर्क दे रहे हैं जिनसे अप्रसन्न होकर राम उनका कड़ा खंडन करते हैः
यथा हि चोरः स तथाहि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानां न नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्।।३४।।
पुष्यमित्र को राम मानने और रामायण और संस्कृत को बुद्ध के बाद की मानने वालों की धारणा में कई त्रुटियाँ हैं।
1. पहली यह कि भाषा-शैली की दृष्टि से इस सर्ग के 28वें श्लोक के बाद के श्लोक बाकी रामायण से अलग हैं इसलिए बाद में जोड़े गए या प्रक्षिप्त माने जाते हैं। ऑरियेंटल इंस्टीट्यूट बड़ौदा के रामायण विद्वान डॉ जी एच भट्ट के नेतृत्व में रामायण के प्रसिद्ध विद्वानों के मंडल ने 15 वर्ष की मेहनत से एक आलोचनात्मक संस्करण तैयार किया है जिसे प्रामाणिक रामायण माना जाता है। उसमें इस सर्ग के 28वें श्लोक के बाद के नौ श्लोकों को नहीं रखा गया है। यह श्लोक उन्हीं में शामिल है।
2. इस श्लोक के अलावा रामायण के 24 हज़ार श्लोकों में कहीं पर बुद्ध और तथागत का या उनके धर्म का कोई उल्लेख नहीं है। यही नहीं, कहानी कोसल और जनकपुर में केंद्रित होने के बावजूद न बुद्ध से जुड़े और इनके समीपवर्ती कुशीनगर और कपिलवस्तु का कोई ज़िक्र है और न मगध का। यह संकेत देता है कि वाल्मीकि ने बुद्ध और उनके प्रादुर्भाव से पहले रामायण लिखी है।
3. यदि इस श्लोक को उनका लिखा मान भी लें तो भी यहाँ बुद्ध और तथागत शब्दों का प्रयोग महात्मा बुद्ध और उनके विशेषण तथागत के रूप में नहीं हुआ है। बुद्ध यहाँ संज्ञावाचक न होकर व्यावहारिक बुद्धि वाले बुद्धिमान व्यक्ति के विशेषण के रूप में आया है और तथागत एक शब्द न होकर तथा और गत की संधि से बना है जिसका अर्थ है जैसा यह वैसा ही वह। कुल मिलाकर पहली पंक्ति का अर्थ है - धर्म के मार्ग पर चलने वाले राजा को अनैतिक सोच वाले बुद्धिमान व्यक्ति को चोर की तरह ही देखना चाहिए और नास्तिक व्यक्ति को भी उन दोनों की ही तरह। अनैतिक आचरण में तीनों समान हैं। जाबालि ने राम को नैतिकता की बातें भूल कर राज्य के भले में व्यावहारिक दृष्टि से सोचने और वापिस घर चलने का आग्रह किया था जिसके जवाब में राम ने कहा अनैतिक सोच वाले इंसान का और नास्तिक का आचरण चोर जैसा ही होता है। यहाँ बुद्ध का न तो कोई प्रसंग है और न संदर्भ।
4. राम ने पूरी रामायण में कहीं किसी के लिए चोर जैसे निंदात्मक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, रावण जैसे शत्रु के लिए भी नहीं। इसलिए अचानक बुद्ध के लिए चोर शब्द का प्रयोग करना राम के पात्र के स्वभाव से मेल नहीं खाता। वाल्मीकि जैसे 24 हज़ार श्लोक का कालजयी काव्य रचने वाले कवि से आप मुख्य पात्र से इस तरह की चरित्र बिगाड़ने वाली भूल कराने की अपेक्षा नहीं कर सकते।
5. रामायण को बुद्ध के बाद की रचना भी मान लें तब भी इतना तो तय है कि रामकथा बुद्ध से सदियों पहले की है और वाल्मीकि के पाये के कवि से आप ऐसी भूल की उम्मीद भी नहीं कर सकते कि वह अपनी रामकथा के नायक से सदियों बाद पैदा होने वाले बुद्ध की बुराई कराने की भूल करेगा।
6. रामायण में कई प्रयोग पाणिनि के व्याकरण से पहले के हैं जिन्हें आर्ष प्रयोग कहा जाता है। भाषा के ये प्रयोग सिद्ध करते हैं कि रामायण पाणिनि से पहले लिखी गई थी। पाणिनि ईसापूर्व पाँचवीं सदी के माने जाते हैं। रामायण में न पाणिनि का कहीं ज़िक्र है और न यूनानियों का जिससे सिद्ध होता है कि रामायण पाणिनि से पहले की है।
7. पुष्यमित्र का वाल्मीकि का राम होना कई कारणों से असंभव है। सबसे बड़ा कारण ते यही है कि रामकथा का उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मंडल से मिलना शुरू हो जाता है।
प्र तद्दु॒:शीमे॒ पृथ॑वाने वे॒ने प्र रा॒मे वो॑च॒मसु॑रे म॒घव॑त्सु ।
ये यु॒क्त्वाय॒ पञ्च॑ श॒तास्म॒यु प॒था वि॒श्राव्ये॑षाम् ॥ १०.९३.१४
तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी रामकथा का उल्लेख है। इसलिए अपने कालजयी महाकाव्य की रचना के लिए वाल्मीकि को किसी जातक से या पुष्यमित्र के चरित्र से प्रेरणा लेने की क्या ज़रूरत थी। राम के चरित्र के त्याग, नीति परायणता और उदात्तता में और पुष्यमित्र शुंग के राज्यविप्लव कर सत्ता हासिल करने वाले चरित्र में किसी कोण से कोई समानता नहीं है।
इसीलिए पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व के संस्कृत नाटककार भास के तीन नाटकों प्रतिमा नाटक, अभिषेक नाटक और यज्ञफलम् की कहानी रामायण से प्रेरित है। उसके बाद कालिदास ने राम के वंश पर अपना महाकाव्य रघुवंशम् लिखा और अपने नाटक मालविकाग्निमित्र में पुष्यमित्र के बेटे अग्निमित्र को नायक बनाया। रामकथा को असली लोकप्रियता वाल्मीकि रामायण के बाद ही मिलती है। वाल्मीकि की रामायण ने रामकथा को भारत ही नहीं पूरी दुनिया की सबसे लोकप्रिय कथा बनाया है। इसलिए यह कहना कि वाल्मीकि की प्रेरणा पुष्यमित्र शुंग थे एक आधारहीन कुतर्क है।
8. अशोक के पालि शिलालेखों से पुराने किसी संस्कृत शिलालेख या ताम्रपत्र के न मिलने के दो मुख्य कारण हो सकते हैं। पहला यह कि अशोक से पहले किसी चक्रवर्ती राजा ने किसी धर्म को बौद्ध धर्म की तरह राजधर्म नहीं बनाया था इसलिए धार्मिक निर्देशों के स्तंभलेखों की ज़रूरत नहीं थी। दूसरा हिंदू शिलालेखों और अभिलेखों को आततायियों ने नष्ट बहुत किया है। जो बचे हैं उनकी खोज के लिए व्यापक रूप से खुदाई नहीं हुई है। शुआन त्सांग के विवरणों के आधार पर कनिंघम और प्रिंसेप की खोजों और खुदाइयों से पहले बुद्ध और बौद्ध धर्म को भी पौराणिक धारणा मान कर इसी तरह के सवाल उठाए जाते थे। सारनाथ की खुदाई ने पूरी तस्वीर बदल दी।
चित्तौड़गढ़ के नागरी गाँव से मिला हाथीबाड़ा शिलालेख अभी तक मिला सबसे पुराना संस्कृत का शिलालेख है जो ब्राह्मी लिपि में है और ईसा से दूसरी और पहली सदी के बीच का है। कृष्ण और बलराम की स्तुति वाटिका की सूचना देने वाले इस शिलालेख के टुकड़े अकबर की सेना द्वारा की गई तोड़-फोड़ के कारण तीन स्थानों से मिले हैं। इसी तरह विदिशा मध्यप्रदेश के बेसनगर में तक्षशिला के यूनानी सम्राट एंटियालसीडस के राजदूत हेलियोडोरस का गरुड़ स्तंभ है जो ईसा पूर्व 113 का बना है। इस पर भी वासुदेव की स्तुति में संस्कृत का एक अभिलेख है जो राजा भागभद्र का भी स्तुतिगान करता है। इन दोनों शिलालेखों से सिद्ध होता है कि संस्कृत में भी शिलालेख लिखे जाते थे। उन्हें बस खुदाई और खोज करके निकालने की ज़रूरत है।
9. जहाँ तक पालि के संस्कृत से प्राचीन होने का प्रश्न है दुनिया के सारे भाषा वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वेदों की संस्कृत या वैदिक संस्कृत और अवेस्ता या प्राचीन फ़ारसी भाषाएँ पाली और प्राकृतों से प्राचीन हैं। पुरानी पांडुलिपियाँ इसलिए नहीं मिलती क्योंकि तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और शारदा पीठ के पुस्तकालय और लोगों के निजी पोथी संग्रह नष्ट कर दिए गए हैं। बुद्ध ने उपदेश के लिए लोकभाषा पालि का प्रयोग इसलिए किया ताकि जल्दी से जल्दी आम लोगों तक पहुँच सकें। इसका मतलब यह नहीं कि उनके समय संस्कृत नहीं थी। यह उसी तरह का तर्क है जैसे कोई किसी को घर पर या दोस्तों से भोजपुरी में बात करते सुनकर कहने लगे कि हिंदी भाषा अभी पैदा ही नहीं हुई है। औपचारिक भाषा और लोकभाषा या बोलियाँ साथ-साथ विकसित होती हैं और हो सकती हैं। बुद्ध और परिवार से जुड़े सभी लोगों और स्थानों के नाम संस्कृत में थे पालि में नहीं। शुद्धोदन, सिद्धार्थ, कपिलवस्तु, महापरिनिर्वाण, बुद्ध सारे नाम संस्कृत के हैं। इसी तरह जैन मुनियों के सारे नाम और सिद्धान्तवाची शब्द संस्कृत के हैं।
इससे सिद्ध होता है कि संस्कृत पालि के बाद की नहीं उसकी समकालीन और उससे प्राचीन भाषा है। रामायण जैसे विश्व के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य पर और संस्कृत जैसी समृद्ध और परिष्कृत भाषा, उसके साहित्य और व्याकरण पर हीनता और ग्लानि के बोध के बजाय हमें अपनी विरासत पर गर्व करना सीखना चाहिए।
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