वैचारिक स्खलन से जूझ रहा संघ-भाजपा।
1980 में जनता पार्टी से अलग होने के बाद बाजपेयी जी के नेतृत्व में भाजपा का जब गठन हुआ तब इसने जनसंघ के विचारधारा के उलट उस समय के फैसनेबल विचारधारा "गांधीवादी समाजवाद" को अपना आदर्श बनाया।
1980 - 84 में जबरदस्त हार के बाद भाजपा ने अपने मूल विचारों की ओर लौटते हुए "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" को अपना आदर्श बनाया। वाजपेयी जी का हिंदू तन मन हिंदू जीवन, आडवाणी जी का छद्म धर्मनिरपेक्षता बनाम राष्ट्रवाद, पांचजन्य के माध्यम से केआर मलकानी, देवेंद्र स्वरूप, शेषाद्री जी, सुदर्शन जी, ठेंगड़ी जी, भानु प्रताप शुक्ल जी का विचारोत्तेजक लेख ने पूरे देश में राष्ट्रवाद का बवंडर खड़ा कर दिया। बौद्धिक जगत में हलचल मच गया, हिंदुत्व के विचारों से प्रभावित होकर सेवानिवृत्त सेनाधिकारी, न्यायविद, वरिष्ठ नौकरशाह, वरिष्ठ लेखक-पत्रकार थोक में भाजपा में शामिल होने लगे।
हिंदुत्व के विचारों को राष्ट्र ने आत्मसात किया। पहले वाजपेयी जी और अब नरेंद्र मोदी ने उसी हिंदुत्व के घोड़े पर चढ़कर सत्तासीन हुए। बाजपेई जी की सरकार को अल्पमत में होने के कारण अनेकों समझौता करना पड़ा। लेकिन नरेंद्र मोदी जी की सरकार तो पूर्ण बहुमत की सरकार है, उसे हिंदुत्व के रास्ते पर चलने से कौन रोक रहा है, ये अचरज भरा प्रश्न है।
आश्चर्य है कल-तक संघ-भाजपा में हिंदुत्व के मुद्दे को प्रमुखता से रखने वाले बौद्धिकों का जो फौज हुआ करता था, आज आपको एक भी दिखाई नहीं देगा। जब हिंदुत्व के बौद्धिकों की ज्यादा जरूरत था, अकस्मात वो सब गायब कैसे हो गए? हिंदुत्व हीं राष्ट्रीयत्व है के जगह सबका डीएनए एक है का मंत्र जाप संघ प्रमुख क्यों करने लगा?
हिंदुत्व जिस राष्ट्रवाद का केंद्रक हुआ करता था, उस राष्ट्रवाद का केंद्रक जातिवाद और मुस्लिम तुष्टिकरण कैसे हो गया ? संघ और भाजपा में कोई भी इन प्रश्नों का जवाब देने को तैयार नहीं है। उससे भी आश्चर्य है इन प्रश्नों को उठाने वाला बुद्धिजीवी हीं जब संघ भाजपा में नहीं है तो उत्तर की कल्पना हीं बेवकूफी है।
फिर आगे की उम्मीद क्या है? क्या ये वैचारिक स्खलन अभी जारी रहेगा या ये विस्फोट से पहले की मुर्दनी शांति है?
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