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कितनी बेदना सहती कामकाजी महिलाएं, घर से ऑफिस तक। *********************************************************

आज मेट्रो में बहुत ही दिल को झकझोरने वाला दृश्य देखा, मन पीड़ा से भर गया। एक 40 वर्ष के आसपास की महिला मंडी हॉउस से बदरपुर की ओर जानेवाली मेट्रो में चढ़ी। बृद्ध और विकलांग वाले सीट पर बैठे दो लडके से प्रार्थना कर उनके बीच में जगह बनाती हुई किसी तरह बैठी। सबसे पहले उन्होंने लाइनर अपने होठों पर लगाया, फिर लिपस्टिक, फिर काजल, फिर बालों में कंघी किया। उसके बाद उन्होंने इसी अवस्था में दो रोटी खाई, फिर बोतल से पानी पीकर इस क्रिया को पूरा किया। 

अब सवाल उठता है ये सब काम वो घर पर भी कर सकती थी, मेट्रों में ही क्यों किया ? क्योंकि घर पर उन्हें इतना भी समय नहीं मिल पाया होगा जो अपनी सुबह के प्रमुख दिनचर्या घर पर ही कर सकें। किसी ऑफिस या फैक्ट्री में काम करने का ये मतलब तो नहीं है की एक सामान्य परिवार से आनेवाली औरतों को घर के काम से मुक्ति मिल गया हो। घर पर पति के लिए भी लंच तैयार करना होता होगा, अपने लिए भी,बेटा-बेटी को भी स्कूल जाने की तैयारी में सहयोग करना होता होगा। फिर ऑफिस में लेट होने की चिंता में घर पर सकून की दो रोटी कौन कहे अपना श्रृंगार तक को करने का समय नहीं मिला होगा। 

आखिर हम कैसा समाज बनाते जा रहे हैं जहाँ इतनी बेदना सहकर एक औरत काम करने घर से निकलती है। शौकिया काम या पैसों की अत्यधिक भूख के लिए काम पर जाना, मौजमस्ती के लिए काम करना एक अलग विषय है। लेकिन जिस महिला को मैंने मेट्रो में देखा, उसे देखकर मुझे लगा ये अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी-जरूरतों को पूरा करने के लिए इतनी बड़ी क़ुरबानी दे रही है।

प्रणम्य है ऐसी माँ, महिला जो अपने परिवार के लिए ऐसी दुःसाध्य तपस्या रोज करती है। 




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