जब हम लोग छोटे बच्चे हुआ करते थे, तब रक्षाबंधन का ये
स्वरुप नहीं हुआ करता था। पाठक जी (पंडित जी) धागा+रुई वाला बहुत सारे रंग-बिरंगे
राखी लेकर आते थे और दलान पर बैठे सभी लोगों(यजमानों) को निम्न मन्त्र पढ़ते हुए
राखी बांधते थे।
'येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो
महाबलः। तेन त्वां प्रतिबध्नामि, रक्षे! मा चल! मा
चल!!'
हमलोग
उनसे कुछ राखी किताब में लगाने के लिए मांग लेते थे। रुपया-पैसा आज की तरह सबके
आलमारी-सिरहाने में हुआ नहीं करता था। इसलिए दक्षिणा में पाठकजी को हमारे बाबा
अनाज दे
दिया करते थे।
परिवर्तन सृष्टि का
नियम है। जो पर्व कभी पुरोहित और यजमानों का हुआ करता था, आज वो भाई-बहन के पर्व में
परिवर्तित हो चूका है। बिना किसी मिलार्ड के हस्तक्षेप के। हमारा सनातन धर्म बहता
हुआ पानी के समान है, इसलिए अभी तक इतना निर्मल बना
हुआ है। जिस धर्म ने परिवर्तन की धारा को बंद कर रखा है, देखिए वहां कैसा सड़ांध मचा हुआ है।
तो आनद लीजिए
भाई-बहन के इस पवित्र पर्व का और सभी बहनों में अपनी बहन होने, उसके रक्षार्थ अपने को समर्पित करने का संकल्प दोहराते रहिए।
जो पर्व कभी पुरोहित और यजमानों का हुआ करता था, आज वो भाई-बहन के पर्व में परिवर्तित हो चूका है बिना किसी मिलार्ड के हस्तक्षेप के। ******************************************************
Reviewed by
विजय संवाद
on
Thursday, August 18, 2016
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