सृष्टि के उत्पत्ति का क्रम
सृष्टि क्रम
१. हिरण्यगर्भ से सृष्टि-
वेद में मूल केन्द्र को नाभि तथा उसके निकट भाग को नाभनेदिष्ट कहा है। तेज रूप केन्द्र को हिरण्य, उससे बने लोक या स्थान हिरण्यकशिपु है, हिरण्मय पुरुष है, उसका मार्ग हिरण्यय है। नाभि केन्द्र से अन्य भागों का आकर्षण आदि से सम्बन्ध हिरण्यकेश है।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे (ऋक्, १०/१२१/१)
हिरण्यं लोके अन्तरा (अथर्व सं. १०/७/२८)
हिरण्मयेन सुवृता रथेन (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३१/१/१९)
हिरण्ययः पन्थान आसन् (अथर्व सं. ५/४/५)
हिरण्याक्षः सविता देव आगात् (ऋक्, १/३५/८, वाज. सं. ३४/२४)-दृश्य निर्माता जिसके केन्द्र में हिरण्य है। उसके निर्माण साधन या अंग हिरण्य हस्त हैं-
हिरण्यहस्तं अश्विना अराणा (ऋक्, १/११७/२४)
हिरण्य केन्द्र से बनी ३ प्रकार की पृथ्वी (पृथ्वी ग्रह, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड) का शरीर हिरण्यकशिपु है।
हिरण्यकशिपुर्मही (अथर्व सं. ५/७/१०)
हिरण्य या उसके शरीर का आकाश या क्रिया क्षेत्र हिरण्य-प्राकारा, या हिरण्यवर्णा (लक्ष्मी) है।
हिरण्यवर्णाः परियन्ति यह्वीः (ऋक्, २/३५/९)
हिरण्यवर्णा हरिणीम्, कांसोस्मितां हिरण्यप्राकाराम् (ऋक् खिल, ५/८७१)
हिरण्यवर्णा जगती जगम्या (तैत्तिरीय आरण्यक, १०/४२/१)
हिरण्यप्राकारा देवि मां वर (मानव श्रौत सूत्र, २/१३/६)
परमाणु का केन्द्र नाभि है जिसके चारों तरफ की रचना कमल दल है। अदृश्य आकर्षण शक्ति कमल नाल है। परमाणु नाभि का भी केन्द्र हिरण्य गर्भ है और नाभि कणों की व्यवस्था कमल है।
आकाश में मूल तत्त्व सब जगह समान था जिसे रस कहा है-यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७)
उसमें सबसे पहले हिरण्यगर्भ हुआ जो तेज का केन्द्र था। इसे आधुनिक भाषा में मूल तेज केन्द्र कहते हैं (Primordial Fireball)। इससे पञ्च महाभूत हुए।
यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति। तस्माद् वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद् वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्यो अन्नः। अन्नात् पुरुषः। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१)
परम व्योम की गुहा हिरण्यगर्भ है। उससे क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, अप्, पृथ्वी-ये ५ महाभूत हुए। ये आकाश के ५ मण्डलों के रूप हैं। अनन्त विश्व प्रायः खाली है, वह आकाश रूप है। उसमें ब्रह्माण्डों से गति या क्रिया का आरम्भ हुआ-वह वायु तत्त्व है। ब्रह्माण्ड में कई स्थानों पर पदार्थ घनीभूत होने से ताप और तेज रूप में ताराओं का जन्म हुआ-वह अग्नि है। केन्द्र अग्नि के बाहर फैला जल जैसा पदार्थ अप् है। उसमें घना सीमाबद्ध पिण्ड पृथ्वी है। पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ ओषधि (जो फल पकने के बाद नष्ट हो जाते हैं) हुयी जिसके अन्न से पुरुष होता है। ५ महाभूतों का प्रतीक कलश हुआ। उसका स्थान आकाश है, उसके भीतर जल अप् है, खाली स्थान में वायु है, कलश का शरीर पृथ्वी है तथा उस पर जलता दीप अग्नि है। जीवन के आरम्भ रूप में आम का पल्लव रखते हैं। हिरण्यगर्भ के प्रतीक रूप में स्वर्ण या ताम्र का पैसा डालते समय यह मन्त्र पढ़ा जाता है-
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋक्, १०/१२१/)
हिरण्यगर्भ से लोकों के निर्माण का क्रम है-
यं क्रन्दसी अवतश्चस्कभाने भियसाने रोदसी अह्वयेथाम्।
यस्यासौ पन्था रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥३॥
यस्य द्यौरुर्वी पृथिवी च मही यस्याद उर्वऽन्तरिक्षम्।
यस्यासौ सूरो विततो महित्वा कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
यस्य विश्वे हिमवन्तो महित्वा समुद्रे यस्य रसामिदाहुः।
इमाश्च प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
(ऋक्, १०/१२१/४-६, अथर्व, ४/२/३-५, ७)
सूर्य से तेज का प्रसार रुदन है। सूर्य जैसे ब्रह्माण्ड के १०० अरब ताराओं का विसर्जन क्रन्दन है। अतः ब्रह्माण्ड का क्षेत्र क्रन्दसी तथा सौरमण्डल रोदसी हुआ। उसके बाद पृथ्वी तथा ३ प्रकार के अन्तरिक्ष बने जिनसे पृथ्वी निर्माण का आरम्भ होने से उनको आदित्य कहा गया-पूरे विश्व का आदित्य अर्यमा, ब्रह्माण्ड का आदित्य वरुण तथा सौरमण्डल का आदित्य मित्र।
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद, २/२७/८)
यहां ३ भूमि की परिभाषा विष्णु पुराण (२/७/३) में दी गयी है-
रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते।
स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥
सूर्य चन्द्र दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह है, केवल सूर्य का प्रकाशित भाग सौरमण्डल द्वितीय पृथिवी तथा सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा ब्रह्माण्ड तृतीय पृथ्वी है। इनके क्षेत्रों के नाम भी पृथ्वी के द्वीपों, समुद्रो तथा नदियों जैसे हैं। जैसे सूर्य के चारों तरफ ग्रहों का भ्रमण क्षेत्र पृथ्वी के द्वीपों के नाम पर हैं या ब्रह्माण्ड के केद्रीय घूमते चक्र को आकाशगंगा कहते हैं।
यही वर्णन पुराणों में कुछ भिन्न शब्दों के साथ है-
ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/३) आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्त्तिनाम्॥२५॥
हिरण्यगर्भः सोऽण्डेऽस्मिन् प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः।
सर्गे च प्रतिसर्गे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्म संमितः॥२६॥
करणैः सह पृच्छन्ते प्रत्याहारैस्त्यजन्ति च।
भजन्ते च पुनर्देहांस्ते समाहार सन्धिसु॥२७॥
हिरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योद्धर्तुर्महात्मनः।
गर्तोदकं सम्बुदास्तु हरेयुश्चापि पञ्चताः॥२८॥
यस्मिन् अण्ड इमे लोकाः सप्त वै सम्प्रतिष्ठिताः।
पृथिवी सप्तभिर्द्वीपः समुद्रैः सह सप्तभिः॥२९॥
गरुड़ पुराण, तृतीय मोक्ष खण्ड, अध्याय ११-
पुरुषाख्यो हरिः साक्षाद् भगवान् पुरुषोत्तमः।
शिश्येत्वण्डोदक विष्णुर्नृणां साहस्र वत्सरम्॥१॥
लक्ष्मीश्चोदक रूपेण शय्यारूपेण भोऽण्डज।
विद्या तरङ्ग रूपेण वायुरूपेण भोऽण्डज॥२॥
तमोरूपेण सैवासीन्नान्यदासीत्कथञ्चन।
आसीद् गर्भोदकं चैव नान्यदासित्कथञ्चन॥३॥
लक्ष्मी सतुष्टाव च हरिं गर्भोदे पक्षिसत्तम।
लक्ष्मीधराभ्यां रूपाभ्यां प्रकृतिर्हरिणा तथा॥४॥
शेत श्रुतिस्वरूपेण स्तौति गर्भोदके हरिम्।
नारायण नमस्तेऽस्तु शृणु विज्ञापनं मम॥५॥
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एवं स्तुतो हरिः कृष्णो सुप्रबुद्धोऽपि सर्वदा।
उद्बुद्धवन् महाविष्णुरभूदज्ञपरीक्षया॥१८॥
तस्य नाभेरभूत् पद्मं सौवर्ण भुवनाश्रयम्।
तत् प्राकृतं च विज्ञेयं भूदेवी त्वभिमानिनी॥१९॥
अनन्त सूर्यवच्चैव प्रकाशकरमीरितम्।
चिदानन्दमयो विष्णुस्तस्माद् भिन्नो न संशयः॥२०॥
२. अग्नि के घनीभूत होने का क्रम-
विरल पदार्थ या ऊर्जा सोम है। उसका घनीभूत रूप अग्नि है जो एक सीमा के भीतर रहता है। ब्रह्म ने अप् में प्रवेश किया, उससे रस, कूर्म, फेन, मिट्टी, बालू, पत्थर, लौह, हिरण्य, ओषधि उत्पन्न हुए। सृष्टि के ९ क्रम को ९ अग्नि कहा गया है। या एक मूल से ८ अन्य भेद (त्रिपाद गायत्री के ८ अक्षर की तरह ८ भेद) मिला कर सृष्टि के ९ क्रम कहे हैं।
सो ऽकामयत्-आभ्यः-अद्भ्यः-अधि -इमां (पृथिवीं) प्रजनयेयम्-इति। तां संक्लिश्य अप्सु प्राविध्यत्। तस्यै यः पराङ् रसो ऽत्यक्षरत्, स कूर्म्मो ऽभवत्। अथ यत् ऊर्ध्वं उदोक्ष्यत-इदं तत्-यत्-इदं ऊर्ध्वं अद्भ्यो ऽधिजायते (पुष्कर पर्णात्मिका आपः-शैवाल रूपा-घन भावाः-शरात्मकाः-घनात्मिकाः-आपः इति यावत्) सेयं सर्वा आप एव अनुव्यैत्। तदिदं एकं एव रूपं समदृश्यत-आपः-एव। सो ऽकामयत्-भूयएव स्यात्-प्रजायेत-इति। सो ऽश्राम्यत्, स तपोऽतप्यत्। स श्रान्तस्तेपानः फेनं-असृजत। सो ऽवेत्-अप एतद्रूपं भूयो वै भवति। श्रमाण्येवेति। स श्रान्तस्तेपानः मृदं शुष्कापमृष-सिकतं-शर्कराम्-अश्मानं-अय-हिरण्यम्-(ओषधि-वनस्पति वर्गं च) असृजत। तेन इमां पृथिवीं प्रच्छादयत्। ता वा एता नव सृष्टयः (तूल सृष्टयः-८, मूल सृष्टिः-१) इयं असृज्यत। तस्माद् आहुः-त्रिवृत् अग्निः इति। इयं अग्निः। अस्यै हि सर्वो अग्निः चीयते। अभूद्वा इयं प्रतिष्ठेति, तद् भूमिः अभवत्। तां अप्रथयत्, सा पृथिवी अभवत्। सेयं सर्वा कृत्स्ना मन्यमाना उदगायत्। यत् अगायत्, तस्मात् अग्निः गायत्र्यः (अष्ट अवयवः) इति। अथो आहुः-अग्निः एव अस्यै (अप् माध्यमेन) पृष्ठे सर्वः कृत्स्नः मन्यमानो अगायत्। तस्मात् अग्निः गायत्र्यः-इति। तस्मादु हैतत्-यः सर्वो कृत्स्नो मन्यते-गायति (उपवर्णयति पृथिवि स्वरूपं) वैव गीते वा रमते। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१२-१५)
आकाश में अग्नि के ५ ही क्रम हैं, जिनमें मूल तत्त्व क्रमशः घनीभूत होता है। पदार्थ या ऊर्जा का घनीभूत रूप अग्नि है। (१) स्वयम्भू मण्डल या अनन्त विश्व प्रायः शून्य होने से आकाश तत्त्व है। (२) परमेष्ठी मण्डल या ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) पिण्ड रूप प्रथम सृष्टि है। अनन्त ब्रह्म का अण्ड होने से ब्रह्माण्ड, या सबसे बड़ी रचना या ईंट होने से परमेष्ठी है। पिण्ड रूप से गति का आरम्भ होने से यह वायुतत्त्व है। (३) सौर मण्डल-तारा निर्माण से प्रकाश का विकिरण आरम्भ हुआ वह तेज या अग्नि तत्त्व है। (४) चान्द्र मण्डल-यह अग्नि का शान्त या शीतल रूप होने से जल तत्त्व हुआ। (५) भू मण्डल-ठोस पृथ्वी भूमि तत्त्व है। यह हमारा आधार होने से पद या पद्म है।
इन ५ अग्नियों में अन्तिम ३ के मिलित प्रभाव का अनुभव होता है। केवल एक का स्पष्ट प्रभाव चिकेत है। किसका कितना प्रभाव है, यह स्पष्ट नहीं है, इसे नाचिकेत है। इन ३ नाचिकेत अग्नियों-सूर्य, चन्द्र, भूमि को शिव (ज्ञान) का ३ नेत्र कहते हैं।
पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः (कठोपनिषद्, १/३/१)
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ (मुण्डकोपनिषद्, २/१/४)
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम्। अपां रेतांसि जिन्वति॥ (ऋक्, ८/४४/१६)
दिवः ककुत्-पति = प्रकाश स्रोत (सूर्य) श्रेष्ठ तम है।
पृथ्वी = अयं (यह, निकट का), अयस् = लौह, स्वर्ण आदि धातु।
अपां = जल समुद्र जैसा विस्तार। रेतांसि = ठोस कण रूप पृथ्वी आदि।
३. पुरुष सूक्त में सृष्टि क्रम-
(१) पूरुष (३ पाद अमृत या मूल रस +१ पाद निर्मित विश्व)
(२) विश्व निर्माण के १००० स्रोत, प्रकार, परिणाम (सहस्र शीर्ष, अक्ष, पाद)
(३) विराट् पुरुष-दृश्य रचनायें-ब्रह्माण्ड,नक्षत्र, ग्रह।
(४) अधिपूरुष-विराट् रूप का अधिष्ठान-उनकी क्रिया, गति।
(५) ग्राम्य, अरण्य पशु-आकाश में विभिन्न प्रकार की शक्तियां। ग्राम्य = साथ मिलकर रहना। आरण्य = एक दूसरे से स्पर्धा। ग्राम्य पशु वह पदार्थ है जिसका निर्माण में उपयोग है। आरण्य से निर्माण नहीं होता।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये॥६॥ (पुरुष सूक्त)
सप्त ग्राम्याः पशवः सप्तारण्याः (शतपथ ब्राह्मण, ३/८/४/१६, ९/५/२/८)
अस्मै वै लोकाय ग्राम्याः पशवः आलभ्यन्ते। अमुष्मा आरण्याः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/३/१)
(६) ५३ प्रकार के ४-४ वर्ण, वेद (मुख्यतः तैत्तिरीय ब्राह्मण में)।
(७) सप्त परिधि या लोक संस्था।
(८) तीन प्रकार की सप्त समिधा।
(९) यज्ञ का उपादान, क्रिया, फल।
(१०) यज्ञों का समन्वय।
४. वृक्ष और वन-
निर्माण का क्रम वृक्ष है। उसमें स्रोत को ऊपर तथा उससे निर्मित पदार्थों का क्रम नीचे शाखा, पत्र आदि हैं। कोई निर्मित पिण्ड क्षर है-वृक्ष के पत्तों जैसा। निर्माण का क्रम सदा स्थायी है, वृक्ष जैसा।
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ (गीता, १५/१)
वृक्ष के कई अर्थ हैं-निरपेक्ष द्रष्टा, निर्माण सामग्री, निर्माण क्रम, इच्छा-संकल्प-कर्म-फल-इच्छा का अनन्त क्रम, चेतन तत्त्व आदि।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/९)
वासना वशतः प्राणस्पन्दस्तेन च वासना।
क्रियते चित्तबीजस्य तेन बीजाङ्कुरक्रमः॥२६॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने।
एकस्मिँश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः॥२७॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य वृत्तिव्रततिधारिणः।
एक प्राण परिस्पन्दो द्वितीयं दृढ़भावना॥४८॥ (मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय २)
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूलमसङ्गशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा॥३॥ (गीता, अध्याय, १५)
निर्माण क्रम का यह अर्थ नहीं है, कि एक समय केवल स्रोत ही था। भूत वर्तमान और भविष्य काल में सदा से विश्व एक जैसा ही है। १/४ भाग (१ पाद) निर्मित विश्व है, तथा बाकी ३/४ भाग मूल स्रोत सदा बना रहता है।
पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥२॥
एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
(पुरुष सूक्त, वाज. यजु, अध्याय ३१)
आकाश में तीन प्रकार के पदार्थ हैं-
(१) ब्रह्माण्ड के तारा, ग्रह आदि पिण्ड (घना पिण्ड या ऊर्जा अग्नि है)। = पुरुष
(२) तारा, ग्रहों के बीच के खाली स्थान का विरल पदार्थ या सोम = अधिपूरुष
(३) अज्ञात पदार्थ जिसके आकर्षण का अनुभव हो रहा है ( dark matter)। = पूरुष के तीन पाद।
आधुनिक अनुमानों में थोडी भिन्नता है। ब्रह्माण्ड के भीतर अज्ञात पदार्थ की मात्रा प्रायः ८०% से अधिक है। दृश्य पिण्ड केवल ४% है।
सम्पूर्ण विश्व में जिसके दृश्य भाग में १०० अरब से अधिक ब्रह्माण्ड हैं, ५% पिण्ड या अग्नि हैं, १८% ताराओं के बीच या ब्रह्माण्डों के बीच का विरल पदार्थ तथा प्रायः ७८% अज्ञात पदार्थ है।
अज्ञात पदार्थ का मान ३/४ भाग या ७५% का अनुमान पुरुष सूक्त में कैसे हुआ? एक तर्क हो सकता है कि ऊर्जा दो प्रकार की है-असुर ऊर्जा से निर्माण नहीं होता-वह तमोगुण है।
देव ऊर्जा से निर्माण होता है, वह राजसिक है। सत्व गुण यथास्थिति है (रजसा वर्तमानः)।
सौर मण्डल के क्षेत्रों के देव ३३ हैं, असुर ९९ हैं। अतः ३/४ भाग अनिर्मित विश्व है, जो आकाश में सदा बना रहता है। निर्मित विश्व में जितना नष्ट होता है, उतना पुनः मूल स्रोत से बन जाता है।
निर्माण का एक क्रम वृक्ष है, कई क्रम एक साथ चल रहे हैं, वह वृक्षों का समूह या वन है। एक वृक्ष का जन्म मरण होता है, वन सदा एक जैसा बना रहता है।
किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तत् यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥
(ऋक्, १०/८१/४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१५, तैत्तिरीय संहिता, ४/६/२/१२)
मनीषियों ने मन में प्रश्न किया कि वह कौन सा वृक्ष और वन था जिसे काट कर आकाश तथा पृथ्वी का निर्माण हुआ तथा इनका किसने धारण किया?
इसका उत्तर है कि ब्रह्म ही वह वन तथा वृक्ष था जिसे काट कर आकाश और भूमि बने तथा ब्रह्म ने ही इसका धारण किया।
ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीत् यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१६)
आरम्भ में एक ही पदार्थ या ब्रह्म था तो निर्माता, सामग्री, उत्पाद, क्रिया आदि सभी एक ही होंगे। क्रिया में सभी मिले होने के कारण इसे सुकृत कहा गया है। इसका बाइबिल के आरम्भ में गलत अनुवाद किया गया है कि निर्माण के हर स्तर पर भगवान् ने कहा कि अच्छा काम हुआ। भगवान् को अपने काम के लिये प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं थी, न अच्छे बुरे की कोई परिभाषा है। सुकृत् की परिभाषा कई स्थानों पर है-असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। तदात्मानँ स्वयमकुरुत तस्मात्तत्सुकृतम् उच्यत इति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/१) = स्वयं ही निर्माण किया अतः सुकृत् कहते हैं।
ताभ्यः पुरुषम् आनयत् ता अब्रुवन्-सुकृतं बत इति। पुरुषो वाव सुकृतम्। ता अब्रवीत्-यथा आयतनं प्रविशत इति। (ऐतरेय उपनिषद्, १/२/३) = उससे पुरुष लाये और कहा कि यही सुकृत् है। यह सभी में प्रवेश करता है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ (गीता, ४/२४)
= ब्रह्म ही अर्पण, हवि, अग्नि, हवन करने वाला, कर्म, तथा अन्तिम क्रिया है और अन्त में सभी ब्रह्म में ही मिलते हैं।
५. अन्य दर्शन-
(१) पाञ्चरात्र दर्शन का क्रम-१. वासुदेव (वास स्थान)-आकाश।
२. संकर्षण -पिण्डों का परस्पर आकर्षण।
३. प्रद्युम्न-पिण्ड के घनीभूत होने से तारा द्वारा तेज का विकिरण जिससे जीवन क्रिया आरम्भ।
४. अनिरुद्ध-अनन्त प्रकार के जीवन रूप।
(२) सांख्य दर्शन-१. पुरुष+ प्रकृति।
२. महत् तत्त्व-पदार्थों का मिलन, संहति।
३. अहंकार-किसी पिण्ड की एकरूपता।
४. तन्मात्रा-माप के ५ प्रकार।
५. मन
६. ज्ञानेन्द्रिय
७. कर्मेन्द्रिय
८. चेतन क्रिया
९. पुनः नयी सृष्टि (कुमार सर्ग)।
६. पुराण सृष्टि क्रम-
विष्णु पुराण (१/५/१९-२५) में सृष्टि के ९ सर्ग कहे गये हैं-
प्राकृत सर्ग-१. महत्तत्व, २. तन्मात्रा, ३. वैकारिक (इन्द्रिय सम्बन्धी)।
वैकृत सर्ग-४. मुख्य (पर्वत, वृक्ष आदि स्थावर), ५. तिर्यक् स्रोत (कीट, पतङ्ग आदि), ६ ऊर्ध्व स्रोत (देव सर्ग), ७. अर्वाक् स्रोत (मनुष्य सर्ग), ८. अनुग्रह सर्ग (सात्त्विक, तामसिक)।
प्राकृत तथा वैकृत-९. कौमार सर्ग।
भागवत पुराण, अध्याय (३/१०) में मूल अव्यक्त को मिला कर १० सर्ग कहे गये हैं। इसमें अहंकार को भी प्राकृत सर्ग महत्तत्व के बाद का क्रम कहा गया है।
इनको तत्त्व रूप में समझना कठिन है। किन्तु ९ प्रकार के सृष्टि सर्गों का निर्माण चक्र ९ प्रकार के कालमान हैं।
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् ।
सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ॥ (सूर्य सिद्धान्त, १४/१)
दृश्य जगत् का सीमा से जितने समय में प्रकाश या ताप आ सकता है, वह ब्रह्मा का दिन हुआ और वह क्षेत्र तपः लोक है (आज की भाषा में Visible Universe)। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) का अक्ष भ्रमण काल मन्वन्तर है (प्राजापत्य काल)। सौर मण्डल की ग्रह सीमा पर स्थित नेपचून कक्षा को १०० कोटि योजन की चक्राकार पृथ्वी कहा है। उस सीमा पर स्थित काल्पनिक ग्रह का परिभ्रमण काल ३६० सौर वर्ष का दिव्य वर्ष है। इसमें सौर वर्ष को दिन माना गया है-उत्तरायण आरम्भ से आगामी उत्तरायण तक। गुरु का का १ राशि में मध्यम गति से भ्रमण काल गुरु वर्ष है (प्रायः ३६१ दिन ४ घण्टा)। चान्द्र मास को दिन मानने से चान्द्र काल मान होता है। सूर्य परिक्रमा काल सौर वर्ष है, ३० अंश भ्रमण सौर मास, १ अंश भ्रमण दिन हुआ। नक्षत्र तुलना में पृथ्वी का अक्ष भ्रमण काल (प्रायः २३ गण्टा ५६ मिनट) नाक्षत्र मान है। स्थानीय सूर्योदय से आगामी सूर्योदय का काल सावन दिन है।
हर प्रकार के निर्माण का आरम्भ जल जैसे पदार्थ के विस्तार से होता है, जो अप् के विभिन्न स्तर हैं। मूल पदार्थ समरूप रस था, उसके कणों में गति होने से वह सरिर् हुआ। दृश्य तरंग रूप सलिल है। ब्रह्माण्ड आकार में घनीभूत रूप अप् है, उसमें शब्द या तरंग अम्भ है। सौर मण्डल में उसे मर कहा है, जिसके स्तर हैं-रुद्र, शिव, शिवतर, शिवतम, सदाशिव।
यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७)
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा, सरिराय त्वा वाताय स्वाहा । (वा॰ यजुर्वेद, ३८/७)
आपो ह वाऽइदमग्रे सलिलमेवास। (शतपथ ब्राह्मण,११/१/६/१)
द्यौर्वाऽअपां सदनं दिवि ह्यापः सन्नाः। (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/२/५६)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मणउपनिषद्, १२/२)
अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण३/८/१८/१)
स इमाँल्लोकनसृजत । अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः । (ऐतरेय उपनिषद्, १/१/२)
निर्मित पिण्ड जिसकी सीमा दीखती है, वह भूमि हुआ।
अप् (जल जैसा) तथा भूमि के बीच की निर्माणाधीन अवस्था मेघ (जल + वायु) या वराह (भूमि तथा जल दोनों का जीव) है।
वराहो मेघो भवति, वराहारः (यास्क निरुक्त, १/१०)
या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा ऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्तामि चाकशीहि॥
(वाजसनेयी सं. १६/२, श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/५)
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं. ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. २/९/७)
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (अघमर्षण मन्त्र, वाजसनेयी सं. ११/५१)
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद्, १४१)
(अरुण कुमार उपाध्याय जी के फेसबुक वॉल से साभार)
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