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जेएनयू कांड : बहुत से सफेदपोश चेहरों को बेनकाब कर दिया, मीडिया और राजनितिक दल को दो फाड़ कर दिया।

जेएनयू कांड ने मिडिया और राजनीती के अंदर छुपे हुए बहुत से सफेदपोश चेहरों  को बेनकाब कर दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ लेकर जो नंगा नाच हो रहा था, उसके   सत्य को प्रकट कर दिया है। मीडिया के अंदर का देशभक्ति और राजनीती के अंदर का देशभक्ति की स्थिति अभी किस स्तर पर है ये भी स्पष्ट हो गया। इसके साथ-साथ जेएनयू अंदर  का भी बहुत सारा सच सामने आ गया।  वहां  छात्रों, शिक्षको और शिकक्षकेत्तर कर्मचारियों के व्यवहार से भी पूरा देश परिचित हुआ।
जेएनयू के अंदर हुए देशद्रोह के अपराध ने मिडिया को दो फार में विभक्त कर दिया।  एक तरफ राष्ट्रवादी मिडिया तो दूसरे तरफ अफजलवादी मिडिया।  जहाँ राष्ट्रवादी मिडिया जान पर खेलकर जेएनयू के एक-एक सच को बाहर  ला रहा था, वही अफजल प्रेमी मिडिया उसके मेहनत को पलीता लगाने  लिए, देशद्रोह के आरोपियों को बचाने के लिए अपने कुतर्कों से फर्जी विडिओ-फर्जी साक्ष्यों से देश को-प्रशासन को- न्यायपालिका को गुमराह कर रहा था। देश को समझ नहीं आ रहा था आखिर ये मिडिया देशद्रोह के आरोपियों को बचाने के लिए अपने साख को दांव पर क्यों लगा रहा है ? यदि देश के खिलाफ नारेवाजी करनेवाले या उसे सहयोग-संरक्षण देने वाले सही होंगे तो कोर्ट से बरी हो जाएंगे। मिडिया के एक वर्ग के शह के कारन वे लडके लोग प्रशासन के साथ लुका-छिपी का खेल खेलते रहे। देशद्रोह के आरोपी होने के बाद भी प्रेस-कांफ्रेस कर अपनी ढिढता दिखाते रहे। जब हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट से उन्हें कोई राहत नहीं मिला तब वे पुलिस के समक्ष 10 दिन बाद समर्पण किए।

मिडिया की तरह ही राजनितिक दल भी दो भागों में बंट गए। भाजपा समर्थित दल "पाकिस्तान जिंदाबाद"-"भारत हो बरबाद"-"भारत के टुकड़ें होंगे हजार" आदि नारों को देशद्रोह के अपराध मान रहे थे। लेकिन बामपंथी पार्टियां-कांगेस-आआपा आदि उसे देशद्रोह नहीं मानते थे।  मिडिया से राजनीती में एक बात अलग था, यहाँ एक तीसरा पक्ष भी  था जो संख्या में बहुत बड़ा था लेकिन उसने विपक्षी पार्टियों  (बामपंथी पार्टियां-कांगेस-आआपा) के सुर में सुर नहीं मिलाया। अपने को इस लड़ाई से अलग रखा। चूँकि जेएनयू के अंदर हुए अफजल के निमित्त कार्यक्रम में बामपंथी छात्र संगठनों का मुख्य भूमिका था, वही लोग आरोपी भी है ऐसे में बामपंथी पार्टियों का अपने लड़कों का समर्थन करना तो समझा  जा सकता है।  लेकिन राहुल गांधी का इन देशद्रोह के   आरोपियों के बचाव में उतरना खुद कांग्रेसियों को समझ में नहीं आ रहा है। नेहरू से लेकर इंदिरा तक और सोनिया से लेकर राहुल तक के कांग्रेस का यह फर्क अब साफ़-साफ़ दिखता है। तो फिर ऐसे आआपा ही क्यों दूर रहता उसने भी मोदी को निशाने पर लेने के लिए इन आरोपी छात्रों के बचाव में कूद पड़ा।
जेएनयू में बामपंथी समर्थित शिक्षकों  का संगठन #junta इन आरोपियों के बचाव में पहले ही दिन से आ गया था, और इस तरह से प्रचारित किया जा रहा था मानो जेएनयू के सभी शिक्षक और कर्मचारी इन आरोपी छात्रों का बचाव  कर रहे हों। जबकि जेएनयू के  अंदर का सच यह था , " जेएनयू  के अंदर हुए देशद्रोह के अपराध के  खिलाफ  वहां के शिक्षकेत्तर कर्मचार्रियों ने जोरदार प्रदर्शन किया", दर्भाग्य से  मिडिया में उसे उतना स्थान नहीं मिला, जितना मिलाना चाहिए था।  संस्कृति-विज्ञानं  आदि संकाय के  शिक्षकों ने क्लास चालू रखने की कोशिश किया, जिसे बामपंथी समर्थित शिक्षकों ने होने नहीं दिया।  #junta ने यूनिवर्सिटी के वीसी पर भी दवाब बनाकर आरोपी छात्रों की गिरफ़्तारी में बाधा पहुँचाया। 
इस तरह जेएनयू में हुई देश बिरोधी कृत्यों ने जेएनयू, मिडिया, राजनितिक दल को दो फाड़ कर दिया, जो की बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।  होना तो यह चाहिए था, समवेत स्वर में देश के सभी पक्ष इस देशद्रोही कृत्यों की भर्त्सना करता, आरोपी छात्रों को न्याय के कटघरे में खड़ा किया जाता और उसे न्यायिक प्रक्रिया में पूर्ण सहयोग करने के लिए कहा जाता।      




















   

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